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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन सहजसहयोगिता आदि अलंकारों तथा अलंकार-संकर एवं अलंकार संस्तुष्टि का भी प्रयोग किया है । इनसे उक्ति में वैचित्र्य मात्र आया है, अभिव्यक्ति में रमणीयता का आधान नहीं हुआ है इसलिए काव्यत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है।
कवि ने चित्रालंकारों की रचना में भी श्रम किया है । इनका भी काव्यात्मक महत्व नहीं है तथापि कवि की तद्विषयक प्रतिभा का परिचय देने हेतु एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है -- चित्रालंकार
जहाँ विशेष प्रकार के विन्यास से लिपिबद्ध किये गये वर्ण, खंग, मुरज, कमल, चक्र आदि के आकार को प्रकट करते हैं वहाँ चित्रालंकार होता है ।' जयोदय में महाकवि ने चक्रबन्ध चित्रालंकार का प्रयोग किया है । काव्य के सत्ताईस सर्ग तक प्रत्येक सर्ग के अन्त में एक-एक चक्रबन्ध एवं अन्तिम सर्ग में एक चक्रबन्ध एवं एक शिविका बन्ध चित्रालंकार इस प्रकार कुल उन्तीस चित्रालंकार मिलते हैं । इन चक्रबन्धों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये पूरे सर्ग के वर्ण्यविषय के शीर्षक हैं एवं सर्ग के सार को अभिव्यक्त करते हैं। प्रयेक चक्रबन्ध द्वारा संकेतित वर्ण्यविषय इस प्रकार हैं -
(१) काशीनरेश जयकुमार द्वारा साधु की उपासना करना, (२) रतिप्रभदेव का जयकुमार से विनम्र निवेदन करना, .. (३) सुलोचना स्वयंवर हेतु दूत द्वारा राजाओं को आमंत्रित करना, (४) राजाओं का स्वयंवर सभा में पहुँचना, (५) स्वयंवर प्रारम्भ होना, (६) बुद्धिदेवी द्वारा नृपपरिचय एवं सुलोचना द्वारा जयकुमार का वरण, (७) अर्ककीर्ति तथा जयकुमार द्वारा युद्ध की तैयारियाँ करना, (८) युद्ध में अर्ककीर्ति का पराजित होना, (९) भरत चक्रवर्ती के समीप अकम्पन के दूत द्वारा स्वयंवर समाचार भेजकर
क्षमा याचना करना, (१०) पाणिग्रहण संस्कार प्रारम्भ करना,
१. काव्यप्रकाश, ९/८५ २. जयोदय, २८/९६