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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १०५ यहाँ पर प्रथम चरण उपमेय तथा शेष चरण उपमान हैं जो " शक्यमेव सकलैर्विधीयते" (सभी लोगों द्वारा शक्य कार्य किया जाता है) उक्ति का औचित्य सिद्ध करते हैं । विभावना वस्तु के गुण वैशिष्ट्य एवं महिमातिशय को व्यंजित करने के लिए कवि ने विभावना का सुन्दर प्रयोग किया गया है । यथा - फुल्लत्यसङ्गाधिपतिं मुनीनमवेक्ष्यमाणो बकुलः कुलीनः । विनैव हालाकुरलान् वधूनां व्रताश्रितं वागतवानदूनाम् || १ / ८१ - निर्ग्रन्थों के अधिपति मुनिराज को देखकर मौलश्री का वृक्ष वधुओं के मद्यकुल्लों के बिना ही विकसित हो रहा है । मानों निर्दोष मूलगुणों को प्राप्त कर रहा है । वधुओं के मुखमद्य को प्राप्त किये बिना ही मौलश्री के विकसित होने का वर्णन होने से विभावना अलंकार है । यह मुनिराज के प्रभावातिशय को द्योतित करने का सर्वोत्तम माध्यम बन पड़ा है। इसी प्रकार अशोक आलोक्य पतिं ाशोकं प्रशान्तचित्तं व्यकसत्सुरोकम् । - रागेण राजीवदृशः समेतं पादप्रहारं स कुतः सहेत ॥ १/८४ - शोकरहित प्रसन्नचित्त मुनिराज को देखकर यह अशोक वृक्ष निःसंकोच स्वयं ही विकसित हो गया । वह अनुरागवश कमलनयना कामिनी द्वारा किये जाने वाले पादप्रहार को कैसे सहन कर सकता है ? यहाँ नायिका के पादप्रहार के बिना अशोक वृक्ष के विकसित होने का वर्णन होने से विभावना अलंकार है । यह मुनिराज की सत्संगतिजन्य लाभातिशय का व्यंजक है । विरोधाभास महाकवि ने वस्तु के उत्कर्ष एवं रूप सौन्दर्यातिशय की व्यंजना हेतु विरोधाभास अलंकार का आश्रय भी लिया है - अनङ्गरम्योऽपि सदङ्गभावादभूत् समुद्रोऽप्यजडस्वभावात् । न गोत्रभित्किन्तु सदा पवित्रः स्वचेष्टितेनेत्यमसौ विचित्रः || १/४१ राजा जयकुमार सुन्दर शरीरवाला होते हुए भी सुन्दर शरीर वाला नहीं था ( अनंगरम्य = कामदेव के समान मनोहर था) अजल स्वभाव होते हुए भी समुद्र था । पर्वतभेदी न होते हुए भी वज्रधारी इन्द्र था । इस प्रकार वह विचित्र चेष्टावान् था । ·
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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