________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
___ यहाँ पर "निशा' विपत्ति का प्रतीक है । दिशा का उद्घाटन जयकुमार के युद्ध में विजयी होने का एवं "उल्लू" मूर्ख का प्रतीक है । इनके द्वारा विलक्षित भावों की अत्यन्त मर्मस्पर्शी ढंग से व्यंजना हुई है।
प्रजा प्रजागर्ति तवोदपेन निशा हि सा नाशमनायि येन ।
भानुः सदा नूतन एव भासि कोकस्य हर्षोऽपि भवेबिकाशी ॥ १९/२० - हे भगवन् ! आप नवीन सूर्य ही है । आपके उदय से रात्रि नष्ट हो जाती है, प्रजा प्रतिबुद्ध होती है एवं उसके दुःख दूर होते हैं ।
- उक्त पद्य में "भानु" जिनेन्द्र भगवान के सर्वज्ञ होने का, “निशा नाशमनायि" अज्ञान के नष्ट होने का प्रतीक है । ये प्रतीक अपने भाव को सफलतया संकेतित करते हैं।
भ्रूभङ्गमङ्गलाया लिङ्गं तदनादरेऽम्बिका साऽयात् ।
अस्मिन् पर्वणि तमसा रभसादसितोऽमितोऽर्कपशाः ॥६/१९ __- बुद्धिदेवी ने सुलोचना के भ्रूभंग से समझ लिया कि अर्ककीर्ति उसे पसन्द नहीं है। परिणामस्वरूप स्वयंवरोत्सव में अर्ककीर्ति का मुख शीघ्र ही अन्धकार से आछन्न हो गया।
यहाँ “तम" तीव्र निराशा का प्रतीक है। इसी प्रकार -
मृदुतनी तरसा तरसी तिमानक्यवावयवीति परित्रमात् ।
क्त सुखायत एव जनोऽहह विलसितं तदिदं तमसो महत् ॥ २५/१९ (मूल प्रति) - कामातुर मनुष्य नवयुवति के शारीरिक अवयवों को प्रेरित करता है । इस कार्य में हुए परिश्रम को सुख मानता है । यह उसके अज्ञान की महिमा है । यहाँ “तम" अज्ञान का प्रतीक है।
मम मनोरवकल्पलताफलं वदति शुक्तिजलक्ष्म स वोपलम् ।
सममिपश्य नृपस्य मनीवितं नृवर सापय तस्य मयीहितम् ॥ ९/६० - राजा अकम्पन दूत से कहते हैं - हे नृवर ! तुम भरत चक्रवर्ती के पास जाकर ज्ञात करो कि वे मेरे द्वारा किये गये स्वयंवरोत्सव रूप कार्य को मोती बतलाते हैं या पत्थर। बाद में यदि उनके विचार मेरे प्रतिकूल हों तो, अनुकूल बना दो ।
प्रस्तुत पद्य में "शुक्तिजलक्ष्म" तथा "उपल" दो प्रतीकों का प्रयोग हुआ है । ये क्रमशः कार्य की “श्रेष्ठता" एवं "हीनता" के अभिव्यंजक हैं । पौराणिक प्रतीक
कवि ने व्यक्ति के गुणों, अवगुणों और प्रवृत्तियों की जीवन्त अनुभूति कराने हेतु पुराणों से प्रतीक ग्रहण किये हैं :