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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
- पृथ्वी पर प्रसिद्ध, उन्नत पयोधरवाली बुद्धिदेवी की वाणी सुनकर महाराज अकम्पन का चित्तमयूर नाच उठा।
चिन्ता दूर होने से उत्पन्न हर्षातिशय की अभिव्यंजना "चित्तकलापी सम्मदेन समवापि" (चित्तमयूर नाच उठा) मुहावरे के प्रयोग से संभव हो सकी है । . . शुचेस्तव मुखाम्भोजानिरेति किमिदं वचः । २४/१३९ पूर्वार्ध
- तुम्हारे पवित्र मुखकमल से यह वचन कैसे निकला ? “मुखकमल" मुहावरा काञ्चनादेवी के मुख सौन्दर्य का साक्षात्कार करा देता है ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि महाकवि ने मुहावरों के प्रयोग से अभिव्यक्ति को रमणीय बनाते हुए पात्रों के मनोभावों, मनोदशाओं, चारित्रिक विशेषताओं, वस्तु के गुण वैशिष्ट्य, कार्य के औचित्व-अनौचित्य के स्तर, घटनाओं एवं परिस्थितियों के स्वरूप को अनुभूतिगम्य बनाया है और उसके द्वारा सहृदय को भावमग्न एवं रससिक्त कर जयोदय में काव्यत्व के प्राण फूंके हैं।
प्रतीक प्रतीक एक शैलीय तत्त्व है जिसके प्रयोग से भाषा में उच्चकोटि की काव्यात्मकता आ जाती है । कारण यह है कि प्रतीक साध्यवसानात्मक लाक्षणिक प्रयोग है जिसमें उपमेय का निर्देश नहीं होता, मात्र उपमान ही निर्दिष्ट होता है । उसी के द्वारा सन्दर्भ विशेष में गुण, क्रिया आदि के साम्य अथवा साहचर्य सम्बन्ध से अर्थान्तर का बोध होता है । यह वक्रोक्ति का उत्कृष्ट रूप है । इसमें कथ्य पूरी तरह लक्षणा एवं व्यंजना का विषय होता है, जो प्रकट न होकर गूढ़ हो.. स जिज्ञासाजन्य रोचकता उत्पन्न कर देता है, अभिव्यक्ति का एक विलक्षण (असामान्य) माध्यम होने से कथन को अत्यन्त आकर्षक एवं रोचक बना देता है । प्रतीक का लक्षण .. वह मूर्त वस्तु प्रतीक कहलाती है जो सन्दर्भ विशेष में गुण, क्रियादि के साम्य के कारण किसी भावात्मक-तत्त्व अथवा अन्य मूर्त पदार्थ का प्रतिभासन करती है । प्रतीक उपमान का कार्य नहीं करता अर्थात् अपने से किसी वस्तु की समानता नहीं दर्शाता अपितु वस्तु को ही संकेतिक करता है । कोई भी वस्तु सन्दर्भ विशेष में ही प्रतीक बनती है ।
१. काव्य शास्त्र में "गौर्वाहीकः” सारोपा लक्षणा का उदाहरण है “गार्जल्पति"
साध्यवसाना लक्षणा का । प्रथम उदाहरण में उपमेय "वाहीक" तथा उपमान "गौः" दोनों का निर्देश है, द्वितीय में मात्र उपमान “गौः"का । उससे “वाहीक" अर्थ लक्षित होता है । अतः वह सन्दर्भ के आधार पर “वाहीक" का प्रतीक है।