________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
उपचारवक्ता
लाक्षणिकता काव्यभाषा का प्रमुख लक्षण है । यह उपचार वक्रता से आती है । उपचारवक्रता का तात्पर्य है अन्य के साथ अन्य के धर्म का प्रयोग । अर्थात् मानव के साथ मानवेतर के धर्म का प्रयोग, मानवेतर के साथ मानव के धर्म का प्रयोग, जड़ के साथ चेतन के धर्म का प्रयोग, चेतन के साथ जड़ के धर्म का प्रयोग, अमूर्त के साथ मूर्त के धर्म का प्रयोग, मूर्त के साथ अमूर्त के धर्म का प्रयोग, धर्मी के स्थान में धर्म का प्रयोग, लक्ष्य के स्थान पर लक्षण का प्रयोग, एक अचेतन के लिए दूसरे अचेतन के धर्म का प्रयोग, विपरीत विशेषण का प्रयोग, कल्पित विशेषण का प्रयोग, एक ही वस्तु के साथ परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रयोग, असम्भव सम्बन्धों का प्रयोग, भिन्न द्रव्यों में अभेद का आरोप इत्यादि । आधुनिक शैलीविज्ञान में इन असामान्य प्रयोगों को विचलन कहते हैं। भारतीय काव्यशास्त्री कुन्तक ने इसे उपचारवकता का नाम दिया है।' अन्य काव्यमर्मज्ञों ने इन्हें लाक्षणिक प्रयोग की संज्ञा दी है। उपचारवक्रता का महत्त्व
उपचार वक्रता से भाषा भावों के स्वरूप की अनुभूति कराने योग्य बन जाती है। उसके द्वारा वस्तु के सौन्दर्य का उत्कर्ष, मानव मनोभावों एवं अनुभूतियों की उत्कटता, तीक्ष्णता, उग्रता, उदात्तता या वीभत्सता, मनोदशाओं की गहनता, किंकर्तव्यविमूढ़ता, परिस्थितियों और घटनाओं की हृदयद्रावकता या आह्लादकता आदि विशेषताएँ अनुभूतिगम्य हो जाती हैं। इनकी अनुभूति सहृदय के स्थायिभावों को उबुद्ध करती है, जिससे वह भावमग्न या रसमग्न हो जाता है। कथन की विचित्र पद्धति से आविर्भूत रमणीयता भी उसे आह्लादित करती है। उपचारवक्रता का प्रयोग उपर्युक्त प्रयोजनों से ही किया जाता है । उपचारवक्रभाषा में लक्षणा और व्यंजना शक्तियाँ ही कार्य करती हैं, क्योंकि वहाँ मुख्यार्थ संगत नहीं होता । लक्षण के द्वारा सन्दर्भानुकूल अर्थ प्रतिपादित होता है, व्यंजना प्रयोजनभूत अर्थ की प्रतीति कराती है। जयोदय में उपचारवक्ता
- महाकवि भूरामलजी ने उपचारवक्रता का प्रचुर प्रयोग किया है और उसके द्वारा भावों के विशिष्ट स्वरूप को अनुभूतिगम्य तथा अभिव्यक्ति को रमणीय बनाया है । यह निम्न उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है :
-
१. यत्र दूरान्तेऽन्यस्मात्सामान्यमुपचर्यते । लेशेनापि भवत् काचिद्वक्तुमुद्रिक्तवृत्तिताम् । यन्मूला सरसोल्लेखारूपकादिरलंकृतिः । उपचारप्रधानासौ वक्रता काचिदुच्यते ।
वक्रोक्तिजीवित, २/१३-१४