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3. सहस्रकूट - अरहन्त तीर्थंकरों के शरीर में 1008 सुलक्षण होते हैं । , अतः तीर्थंकरों को 1008 नामों से पुकारते हैं । इस एक-एक नाम के लिये एक-एक वास्तु कला में विराजमान कर 1008 बिम्ब एक स्थान पर विराजमान किये जाते हैं । इसलिये इसको सहस्रकूट जिनालय कहा जाता है । श्री कोटि भट्ट राजा श्रीपाल के समय सहस्रकूट जिनालय के सम्बन्ध में श्रीपाल चरित्र में वर्णित किया गया है कि जब सहस्रकूट जिनालय के कपाट स्वतः ही बन्द हो गये तब कोटि भट्ट राजा श्रीपाल एक दिन उसकी वन्दना करने के लिये आते हैं तो उसके शील की महिमा से
कपाट एकदम खुल जाते हैं । 4. त्रिकाल चौबीसी जिनालय - यह वह जिनालय है जिनमें भरत क्षेत्र
के भूत, वर्तमान व भविष्य की 24-24 जिन प्रतिमायें 5.6 फुट उतंग 24 जिनालयों में विराजमान की जावेगी । भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण के बाद शोक मग्न होकर भरत चक्रवर्ती विचारने लगा कि अब तीर्थ का प्रवर्तन कैसे होगा । तब महा मुनिराज गणधर परमेष्ठी कहते हैं कि हे चक्रि, अब धर्म का प्रवर्तन जिन बिम्ब की स्थापना से ही सम्भव है । तब चक्रवर्ती भरत ने मुनि ऋषभ सेन महाराज का आर्शीवाद प्राप्त कर कैलाश पर्वत पर स्वर्णमयी 72 जिनालयों का निर्माण कराकर रत्न खचित
500-500 धनुष प्रमाण 72 जिन बिम्बों की स्थापना की । 5. मानस्तम्भ - जैनागम के अनुसार जब भगवान का साक्षात समवशरण
लगता है तब चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ स्थापित किये जाते हैं और मानस्तम्भ में चारों दिशाओं में एक-एक प्रतिमा स्थापित की जाती है अर्थात 1 मानस्तम्भ में कुल चार प्रतिमायें होती हैं । इस मानस्तम्भ को देखकर मिथ्यादृष्टियों का मद (अहंकार) गल जाता है और भव्य जीव सम्यग्दृष्टि होकर समवशरण में प्रवेश कर साक्षात अरहंत भगवान् की वाणी को सुनने का अधिकारी बन जाता है । इस सम्बन्ध में अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के समय एक घटना का उल्लेख जैन शास्त्रों में मिलता है कि इन्द्रभूति गौतम अपने 5 भाई और 500 शिष्यों सहित भगवान् महावीर से प्रतिवाद करने के लिये अहंकार के साथ आता है लेकिन मानस्तम्भ को देखते ही उसका मद गलित हो जाता है और प्रतिवाद का भाव छोड़कर। सम्यक्त्व को प्राप्त कर । सम्पूर्ण शिष्यों सहित जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर भगवान महावीर के प्रथम गणधर पद को प्राप्त हो गया अर्थात इस मानस्तम्भ