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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन इस प्रकार वन्दना और भ्रमण करते हुए वे कैलाश पर्वत पर पहुँचते हैं । वहाँ स्थित जिनालय में पहुँचकर भगवान् के चरण कमलों में पुष्प अर्पित कर उन्हें तीन प्रदक्षिणा देते हैं । जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ रूप द्रव्यों से प्रभु की पूजन करते हैं । स्फटिक मणि की माला लेकर परमेष्ठि वाचक मन्त्र का जाप एवं उनका गुणानुवाद करते हैं। अन्त में जिनेन्द्र देव की चरणरज मस्तक से लगाकर वे जिनालय से बाहर आते हैं।
पर्वत पर विहार करते हुए वे दम्पत्ति एक दूसरे से कुछ दूर हो जाते हैं । उसी समय सौधर्म इन्द्र की सभा में रविप्रभ देव जयकुमार व सुलोचना के शील की प्रशंसा सुनता है । वह अपनी काञ्चना नामक देवी को उनके शील की परीक्षा करने हेतु भेजता है । वह देवी काल्पनिक कथा कहते हुए जयकुमार के रूप सौन्दर्य की महती प्रशंसा करती है । वह अनेक काम चेष्टाओं से उसे विचलित करने का प्रयास करती हैं, परन्तु उसे सफलता नहीं मिलती । जयकुमार ही उसके कार्य की निन्दा करते हुए उसे सद् शिक्षा देता है । देवी जयकुमार के उदासीनता से परिपूर्ण वचनों को सुनती है । क्रोधित हो वह राक्षसी का रूप धारण कर जयकुमार को उठा कर भागने लगती है । यह देख कर जब सती सुलोचना उसकी भर्त्सना करती है तो वह देवी जयकुमार को छोड़ कर चली जाती है । तत्पश्चात् वह देवी शीघ्र ही रविप्रभ देव के साथ आती है । वे दोनों शील की परीक्षा में सफल जयकुमार व सुलोचना की पूजा करते हैं ।
इस प्रकार तीर्थयात्रा कर वे स्वगृह वापिस आ जाते हैं और सन्तोष पूर्वक जीवन यापन करते हैं। पञ्चविंशतितम सर्ग
के जयकुमार तीर्थ यात्रा से वापिस आने पर वस्तु के स्वरूप पर विचार करते हैं । वे संसार की क्षणभंगुरता, निःसारता का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । वस्तु स्वरूप के चिन्तन से उसका वैराग्य भाव जागरित होता है । वह संसार, शरीर और इन्द्रिय विषय भोगों से उदासीन हो जाते हैं। पड़विंशतितम सर्ग
___ जयकुमार राज्य भार संभालने में दक्ष अपने पुत्र अनन्तवीर्य का शास्त्रोक्त विधि से राज्याभिषेक करते हैं । अनन्तर उसे राजनीति का उपदेश देते हैं । वे मन्त्रियों व सैनिकों
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