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________________ 387 होगा। इसके अतिरिक्त लघुशत्रुजयकल्प के नाम से एक कृति और मिलती है। यह कृति श्री शत्रुजय गिरिराज दर्शन में अपने अंग्रेजी अनुवाद के रूप में प्रकाशित है। यह कृति सारावली प्रकीर्णक की कुछ गाथाओं के संकलन के रूप में प्रतीत होती है। कृति के अंत में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि ये गाथाएँ पूर्वधर के द्वारा “सारावली पइण्णा" में रचित है। इससे स्पष्ट है कि लघु शत्रुजयकल्प की गाथाएँ सारावली प्रकीर्णक से उघृत है। इससे एक बात विशेष रुप से यह ज्ञात होती है कि उसमें सारावली प्रकीर्णक को पूर्वधर द्वारा रचित कहा गया है। इस आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि सारावली के रचनाकाल की हमने जो पूर्व में कल्पना की है उसकी अपेक्षा यह कुछ प्राचीन हो। शत्रुजय गिरि (पुण्डरिकपर्वत) संबंधी अन्य ग्रंथों में धनेश्वरसूरि द्वारा रचित शत्रुजय महात्म्य भी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यद्यपि परंपरागत मान्यता यह है कि धनेश्वरसूरि ने इसकी रचना विक्रम सं. 477 में शीलादित्य के समय में की थी, किन्तु यह बात कम विश्वसनीय लगती है क्योंकि विक्रम की पाँचवी शती में धनेश्वर सूरि नामक किसी जैन आचार्य के होने का कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता है। वैसे तो परवर्ती काल में धनेश्वर सूरि नामक कई आचार्य हुए हैं, किन्तु उसमें सर्वप्रथम जिन धनेश्वर सूरि की सूचना हमें प्राप्त होती है, वेमुजराज के शासन काल में विक्रम की दसवीं शती के उत्तरार्ध एवं ग्यारहवीं शती के पूर्वार्ध में हुए हैं। उनके पश्चात् दूसरे धनेश्वरसूरि नाणकीय गच्छ के शांतिसूरि के प्रशिष्य और सिद्धसेन सूरि के शिष्य थे। इनका काल 12वीं शती होना चाहिए। तीसरे धनेश्वर सूरि का काल विक्रम की 14वीं शती है। प्रो. एम.ए. ढाकी के अनुसार इन्होंने ही विक्रम संवत् 1372 तदनुसार ईस्वी सन् 1315 में शत्रुजय महात्म्य की रचना कीथी। इस प्रकार हम देखते हैं कि तपागच्छीय धर्मघोष सूरि कृत शत्रुजय कल्प (लगभग विक्रम संतव् 1340), खतरगच्छीय जिनप्रभसूरि रचित शत्रुजयकल्प (विक्रम संवत् 1385) और धनेश्वर सूरि रचित शत्रुजय महात्म्य (विक्रम संवत् 1372) एक ही काल की रचनाएँ हैं और इन सबका आधार सारावलरी प्रकीर्णक ही रहा है। लघुशजयकल्पतो उसी की गाथाओं के आधार पर निर्मित ही है। इस प्रकार शत्रुजयतीर्थ संबंधी साहित्य की रचना में प्रस्तुत सारावली प्रकीर्णक की कथावस्तु आधारभूत रही है। परवर्ती काल में इन्हीं सब ग्रंथों के आधार पर शत्रुजयतीर्थ के महात्म्य और स्तुति संबंधी विपूल साहित्य रचा गया, किन्तु विस्तार भय से उन सबकी चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है। अब हम इस तीर्थ के उद्भव एवं
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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