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________________ 376 तीर्थयात्रा- . जैन परंपरा में तीर्थयात्राओं का प्रचलन कबसे हुआ, यह कहना अत्यंत कठिन हैं, क्योंकि चूर्णीसाहित्य के पूर्व आगमों में तीर्थ स्थलों की यात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। सर्वप्रथम निशीथचूर्णी में स्पष्ट रुप से यह उल्लेख है कि तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करता हुआ जीव, दर्शन-विशुद्धि को प्राप्त करता है। इसी प्रकार व्यवहारभाष्य और व्यवहार चूर्णी में यह उल्लेख है कि जो मुनि अष्टमी और चतुर्दशी को अपने नगर के समस्त चैत्यों और उपाश्रयों में ठहरे हुए मुनियों कोवंदन नहीं करता है तो वहमासलघुप्रायश्चित का दोषी होता है।" तीर्थयात्रा का उल्लेख महानिशीथसूत्र में भी मिलता है यद्यपि इस ग्रंथ का रचनाकाल विवादास्पद है। हरिभद्र एवं जिनदासगणि द्वारा इसके उद्धार की कथा तो स्वयं ग्रंथ में ही वर्णित है। नन्दीसूत्र में आगमों की सूची में महानिशीथ का उल्लेख है। अतः यह स्पष्ट है कि इसका रचनाकाल पाँचवीं से आठवीं शताब्दी के मध्य ही रहा होगा। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि जैन परंपरा में तीर्थ यात्राओं को इसी कालावधि में विशेष महत्व प्राप्त हुआ होगा। ____ महानिशीथ में उल्लेख है कि “हे भगवन् ! यदिआपआज्ञा दें तो हम तीर्थयात्रा करते हुए चन्द्रप्रभ स्वामी को वंदन कर और धर्मचक्र तीर्थ की यात्रा करके वापस आयें। ___33. 32. निशीथचूर्णी, भाग-3, पृ. 24 निस्सकडमनिस्सकडे चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि । वेलंब चेइआणि व नाउं रविकक्किक आववि', अट्टमीचउदसी सुंचेइय सव्वाणि साहुणो सव्वे वन्देयव्वा नियमा अवसेस - तिहीसुजहसत्ति॥" एएसुअट्ठमीमादीसुचेझ्याईसाहुणोवाजे अणणाएपसहीएठिआते नवंदंतिमासलहु॥ - व्यवहारचूर्णी - उद्धृत जैनतीर्थोनो इतिहास, भूमिका, पृ. 10 34. जहन्नया गोयमा ते साहुणोतं आयरियं भणंति जहा - णंजइ भयवं तुमे आणावेहि ताणं अम्हेहि तित्थयत्तं करि (2) याचंदप्पहंसामियंवंदि(3) याधम्मचक्कंगंतूणमागच्छामो॥ - महानिशीथ, उद्धृत, वही, पृ. 10
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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