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साथ ही तीर्थंकरों की चिता - भस्म एवं अस्थियों को क्षीरसमुद्रादि में प्रवाहितकरनेतथा देवलोक में उनकेरखे जाने के उल्लेख भी मिलते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति मेंऋषभ के निर्वाणस्थल पर स्तूप बनाने का उल्लेख है।” इस काल के आगम ग्रंथों में हमें देवलोक एवं नंदीश्वर द्वीप में निर्मित चैत्य आदि के उल्लेखों के साथ-साथ यह भी वर्णन मिलता है कि पर्व-तिथियों में देवता नंदीश्वरद्वीप जाकर महोत्सव आदि मनाते हैं। यद्यपि इस काल के आगमों में अरिहंतों के स्तूपों एवं चैत्यों के उल्लेख तो हैं किन्तु उन पवित्र स्थलों पर मनुष्यों द्वारा आयोजित होने वाले महोत्सवों और उनकी तीर्थ यात्राओं पर जाने का कोई उल्लेख नहीं है। विद्वानों से हमारी अपेक्षा है कि यदि उन्हें इस तरह का कोई उल्लेख मिले तो वे सूचित करें।
लोहानीपुर और मथुरा में उपलब्ध जिन-मूर्तियों, आयाग-पटों, स्तूपांकनों तथा पूजा के निमित्त कमल लेकर प्रस्थान आदि के अंकनों से यह तो निश्चित हो जाता है कि जैन परंपरा में चैत्यों के निर्माण और जिनप्रतिमा के पूजन की परंपरा ई.पू. की तीसरी शताब्दी में भी प्रचलित थी। किन्तु तीर्थ और तीर्थयात्रा संबंधि उल्लेखों का आचारांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगमों में अभाव हमारे सामने एक प्रश्न चिन्ह तो अवश्य ही उपस्थित करता है।
तीर्थ और तीर्थयात्रा संबंधी समस्त उल्लेख नियुक्ति, भाष्य और चुर्णी साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आचारांग नियुक्ति में अष्टापद, उर्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र और अहिच्छत्रा को वंदन किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि नियुक्ति काल में तीर्थस्थलों के दर्शन, वंदन एवं यात्रा की अवधारणा स्पष्ट रूप से बन चुकी थी और इसे पुण्य कार्य माना जाता था। निशीथचूर्णी में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करने से दर्शन की विशुद्धि होती है, अर्थात् व्यक्ति की श्रद्धापुष्ट होती है।
27. (अ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 2/111
(ब) आवश्यकनियुक्ति, 48
(स) समवायांग, 34/3 28. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (जबुद्दीवपण्णत्ति), 2/114-22 29. अट्ठावयउज्जिंते गयग्गपएधम्मचक्केय।
पासरहावतनगंवमरुप्पायंचवंदामि 30. निशीथचूर्णिभाग1 पृ. 24