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________________ 369 आगे चलकर तीर्थंकरों के जीवन की प्रमुख घटनाओं से संबंधित स्थल ही नहीं अपितु गणधर एवं प्रमुख मुनियों के निर्वाण-स्थल और उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटना से जुड़े हुए स्थल भी तीर्थ के रूप में स्वीकार किये गये। इससे भी आगे चलकर वेस्थलभी, जहाँकलात्मकमंदिर बनेयाजहाँकी प्रतिमाएँचमत्कारपूर्णमानीगई, तीर्थकहेगये। हिन्दू और जैन तीर्थ की अवधारणाओं में मौलिक अंतर यह सत्य है कि कालान्तर में जैनों ने हिन्दू परंपरा के समान ही कुछ स्थलों को पवित्र और पूज्य मानकर उनकी पूजा और यात्रा को महत्व दिया, किन्तु फिर भी दोनों अवधारणाओं में मूलभूत अंतर है। हिन्दू परंपरा नदी, सरोवर आदि को स्वतः पवित्र मानती है, जैसे- गंगा। यह नदी किसी ऋषि-मुनि आदि के जीवन की घटना से संबंधित होने के कारण नहीं, अपितु स्वतः ही पवित्र है। ऐसे पवित्र स्थल पर स्नान, पूजा अर्चना, दान-पुण्य एवं यात्रा आदि करने को एक धार्मिक कृत्य माना जाता है। इसके विपरीत जैन परंपरा में तीर्थस्थल कोअपने आप में पवित्र माना गया, अपितु यह माना गया है कि तीर्थंकर अथवा अन्य त्यागी-तपस्वी महापुरुषों के जीवन से संबंधित होने के कारण वे स्थल पवित्र बने हैं । जैनों के अनुसार कोई भी स्थल अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं होता, अपितु वह किसी महापुरुष से संबंद्ध होकर या उनका सानिध्य पाकर पवित्र माना जाने लगता है, यथा-कल्याणक, भूमियाँ; जो तीर्थंकर के जन्म, दीक्षा, कैवल्य या निर्वाणस्थल होने से पवित्र मानी जाती है। बौद्ध परंपरा में भी बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थलों को पवित्र माना गया है। हिन्दू और जैन परंपरा में दूसरा महत्वपूर्ण अंतर यह है कि जहाँ हिन्दू परंपरा में प्रमुखतया नदी-सरोवर आदि को तीर्थ रुप में स्वीकार किया गया है वहीं जैन परंपरा में सामान्यतया किसी नगर अथवा पर्वत को भी तीर्थस्थल के रूप में स्वीकार किया गया । यह अंतर भी मूलतः तो किसी स्थल को स्वतः पवित्र मानना या किसी प्रसिद्ध महापुरुष के कारण पवित्र मानना, इसी तथ्य पर आधारित है। पुनः इस अंतर का एक प्रसिद्ध कारण यह भी है कि जहाँ हिन्दू परंपरा में बाह्य शौच (स्नादि शारीरिक शुद्धि) की प्रधानता थी, वहीं जैन परंपरा में तप और त्याग द्वारा आत्मशुद्धि की प्रधानता थी, स्नानादि तो वर्ण्य ही माने गये थे। अतः यह स्वाभाविक था कि जहाँ हिन्दू परंपरा में नदी-सरोवर तीर्थ रुप में विकसित हुए वहाँ जैन परंपरा में साधना-स्थल के रुप में वनपर्वत आदि तीर्थों के रुप में विकसित हुए। यद्यपि आपवादिक रुप में हिन्दू परंपरा में भी
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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