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- मार्ग को ही तीर्थ कहागया है।आवश्यकनियुक्ति में श्रतुधर्म, साधना मार्ग, प्रावचन, प्रवचन और तीर्थ - इन पाँचों को पर्यायवाची बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन परंपरा में तीर्थशब्द केवल पवित्र या पूज्य स्थल के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआहै। तीर्थ से जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्रस्थल तक ही सीमित नहीं है वे तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म साधकों के समूह को ही तीर्थ रूप में व्याख्यायित करते हैं।
तीर्थकाआध्यात्मिक अर्थ
जैनों ने तीर्थ के लौकिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ से ऊपर उठकर उसे आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में चाण्डाल - कुओत्पन्न हरकेशी नामक महान निर्ग्रन्थ साधक से जब यह पूछा गया कि आपका सरोवर कौन-सा है ? आपका शांतितीर्थ कौन-सा है ? तो उसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि धर्म ही मेरा सरोवर है और ब्रह्मचर्य हीशांति तीर्थ है जिसमें स्नान करके आत्मा निर्मल और विशुद्ध हो जाती है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सरिता आदि द्रव्यतीर्थ तो मात्र बाह्यमल अर्थात् शरीर की शुद्धि करते हैं अथवा वे केवन नदी, समुद्र आदि के पार पहुँचाते हैं, अतः वे वास्तविक तीर्थ नहीं है। वास्तविक तीर्थ तो वह है जो जीव को संसार-समुद्र से उस पार मोक्षरूपी तट पर पहुँचाता है। विशेषावश्यकभाष्य में न केवल
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सुयधम्मतित्थमग्गोपावयणंपवयणंचएगट्ठा। सुत्तं तंतगंथोपाढोसत्थंपवयणंचएगट्ठा।
- विशेषावश्यकभाष्य, 1378 केते हरए ? के यते सन्तितित्थे? कहिसिणहाओवरयंजहासि? धम्मे हरये बंभेसन्तितित्थे अणाविले अत्तपसनलेसे। जहिंसिण्हाओ विमलो विसुद्धो सुसीइभूओपजहामिदोसं॥
- उत्तराध्ययन सूत्र, 12/45-46 देहाइतारयंजंबज्झमलावणयणाइमेत्तं च। णेगंताणच्चंतियफलंचतोदव्वतित्थं तं॥ इह तारणाइफलयंतिण्हाण-पाणा- ऽवगाहणईहि। भवतारयंति केईतं नोजीवोवधायाओ॥
- विशेषावश्यकभाष्य
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