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ग्रंथकारचनाकालः
नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें सारावली प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं है। तत्वार्थ भाष्य और दिगंबर परंपरा की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी सारावली प्रकीर्णकका कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परंपरा के ग्रंथों में भी सारावली प्रकीर्णक का उल्लेख अनुपलब्ध है। इससे यह फलित होता है कि छठी शताब्दी से पूर्व इस प्रकीर्णक का कोई अस्तित्व नहीं था। यदि हम इस ग्रंथ के रचनाकाल की उत्तर सीमा को और सीमित करें तो स्पष्ट होता है कि आचार्य जिनप्रभ की विधिमार्गप्रपा और सिद्धान्तागमस्तव ग्रंथों में भी सारावली प्रकीर्णक का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि चौदहवीं शताब्दी तक भी सारावली प्रकीर्णक अस्तित्व में नहीं आया था। ___सारावली प्रकीर्णक के रचयिता ने जिस प्रकार ग्रंथ के ग्रंथकर्ता के रूप में कहीं भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है, उसी प्रकार इस ग्रंथ के रचनाकाल के संदर्भ में भी उसने ग्रंथ में कहीं कोई संकेत नहीं दिया है। अतः चौदहवीशती के पश्चात् भी यह ग्रंथ कब रचा गया, इस संदर्भ में निश्चय पूर्वक कुछ कहना दुराग्रह होगा । ग्रंथ के रचनाकाल के संदर्भ में मात्र यही कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ चौदहवीं शती के पश्चात् कभी रचा गया है। प्रस्तुत ग्रंथ की भाषा पर अपभ्रंश का भी पर्याप्त प्रभाव है। अतः इसकी रचना 10वीं शती के पश्चात् तथा 15वीं शती के पूर्व कभी हुई होगी। इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में गच्छ शब्द का प्रयोग है। (गच्छ शब्द का प्रयोग 10वीं शती के पूर्व नहीं देखा जाता । अतः यह प्रकीर्णक 10वींशतीसे परवर्ती है। विषयवस्तु:
(सारावली प्रकीर्णक में कुल 116 गाथाएँ हैं और ये सभी गाथाएँ पुण्डरिक पर्वत की महिमा का निरुपण करती है।) सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठी माहत्म्य की चर्चा करते हुए अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुको वंदन किया गया है। (1-2)।
ग्रन्थानुसार पंचपरमेष्ठी स्वयं की योग्यता एवं निज गुणों से वंदन के योग्य हैं। ये पंचपरमेष्ठी संसार के समस्त जीवों के बांधव, प्रिय और अपतिप्रिय हैं (3-4)। आगे की गाथाओं में कहा गया है किपंचपरमेष्ठी समस्तमहान गुणों से विभूषित हैं तथायेगुण नित्यही देवों तथा मनुष्यों केद्वारा पूजित हैं।आगेयहभी कहा गया है किजो-जोभूमि प्रदेशपांचोंही उत्तमपुरुषोंकेद्वारापावन है, वह-वहप्रदेशदेवों तथामनुष्यों केलिएपूजनीय है (5-6)।