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349 उत्तम संतदेशना सुनी हो, जीवों को सुख पहुँचाया हो तथा और भी जो कुछ सद्धर्म किया हो, उन सबका मैं त्रिविध रूप से बहुमान करता हूँ। धर्मकथा के द्वारा परोपकार करने वाले, ज्ञान के द्वारा मोह को जीतने वाले, गुणों के प्रकाशक जिन भगवान् की त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ। दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा सभी कर्मों के क्षय से शुभभाव और सिद्धों के सिद्ध भाव की त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ। तत्पश्चात् आगेकी गाथाओं में आचार्य, उपाध्याय, साधुऔर श्रावकजनों के शुभ कार्यों की ग्रंथकार द्वारा अनुमोदना करने का विवेचन है। ग्रंथकार सुकृत अनुमोदना का विवेचन यह कहकर पूर्ण करता है कि सद्कर्मों के द्वारा अन्य बहुत से भव्य जीवों ने अनुरुप मार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग को प्राप्त किया है, उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ (18-26)।
ग्रंथकार ने ग्रंथ का समापन यह कहकर किया है कि यह चतुःशरण जिसके मन में सदाकाल स्थित रहता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों को लॉघकर कल्याण प्राप्त करता है (27)।
चतुःशरण की इस परंपरा का विकास जैन धर्म में भक्ति मार्ग के बीज वपन के साथ-साथ हुआ। भक्ति की अवधारणा भारतीय चिंतन में अति प्राचीन काल से चली
आ रही है। यहाँ तक कि ऋग्वेद के अनेक मन्त्र स्तुतिपरक हैं। हिन्दू परंपरा में गीता मुख्यतः भक्तिमार्ग का ग्रंथ कहा जा सकता है। उसमें कृष्ण अपने भक्त को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि तू मेरी शरण में आजा, मैं तुझ मुक्त कर दूंगा।शरणागति की यह अवधारणा हिन्दू धर्म में अपनी संपूर्णता के साथ विकसित हुई है। यद्यपि गीता में ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग का प्रतिपादन है फिर भी हमें यह मानने में संकोच नहीं है कि गीता का मुख्य प्रतिपाद्य भक्ति है। भारतीय भक्तिमार्ग की यह परंपरा श्रीमद्भागवत में अपने पूर्ण विकास पर प्रतीत होती है। यद्यपिभारतीय श्रमण परंपराअनीश्वरवादी परंपरा होने के कारण मूलतः भक्तिमार्गी परंपरा नहीं है । बुद्ध अथवा तीर्थंकर कोई भी अपने उपासक को यह आश्वासन देता प्रतीत नहीं होता कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूंगा। फिर भी श्रमण परंपरा में इन धर्मों में किसी न किसी रूप में भक्ति मार्ग का प्रवेश हो गया । यद्यपि जैन और बौद्ध, दोनों ही धर्म ईश्वरीय कृपा की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं, फिर भी इन दोनों परंपराओं में अपनी सहवर्ती हिन्दू परंपरा के प्रभाव से भक्ति मार्ग ने अपना स्थान बनाया। बौद्ध परंपरा में इसी आधार पर त्रिशरण की अवधारणा विकसित हुई, जिसके अंतर्गत साधक संघ, धर्म औरबुद्ध की