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जावंति केइ दुक्खा सरीरा माणसा व संसारे । पत्तो अणंतखुत्तो कायस्स ममत्त दोसेणं ॥ (संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 100 )
तम्हा सरीरमाई ... सब्भितर - बाहिरं निरवसेसं । छिद ममत्तं सुविहिय ! जइ इच्छसि उत्तिमं अहं ॥ (संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 101 )
आयरिय उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल गणे य ।
जेमे के कसाया सव्वे तिविहेण खामि ॥ ( संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 103 )
सव्वस्स समणसंघस्स भगवओ अंजलिं करिय सीसे । सव्वं खमावइत्ता अहमवि खामेमि सव्वस्स ॥ (संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 104 )
धीधणियबद्धकच्छा अणुत्तरविहारिणो समक्खाया। सावयदाढगया वि हु साहंती उत्तमं अहं ॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 110)
अन्नाणी कम्मं खवे बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥
(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 114 )
अट्ठविहकम्ममूलं बहुएहिं भवेहिं संचियं पावं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥
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(संस्तारक प्रकीर्णक, गाथा 115 )