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(16) (i)
(16) (ii)
गयपुर कुरुदत्तसुओ निसीहिया' अडविदेस पडिमाए। गावि कुढिएण दड्ढो, गयसुकुमालो जहा भगवं ।।
(मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 493) हत्थिणपुरगुरुदत्तो संबलिथाली व ढोणिमंतम्मि। उज्झंतो अधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अट्ठ॥
(भगवती आराधना, गाथा 1547) गुरुदत्तपंडवेहि य गयवरकुमरेहिं तह य अवरेहिं। माणुसकओ उवसग्गो सहिओ हु महाणुभावेहिं॥
(आराधनासार, गाथा 50)
(16) (iii)
(17) (i) जो तिहिं पएहिं धम्म समभिगओ संजमं समारुढो।
उवसम 1 विवेग 2 संवर 3 चिलाइपुत्तं नमसामि॥ सोएहिं अइगमाओ लोहियगंधेण जस्स कोडीओ। खायंति उत्तिमंगं तं दुक्करकारयं वंदे॥ देहो पिपीलियाहिं चिलाइपुत्तस्स चालणि व्व कओ। तणुओ वि मणपओसो न य जाओ तस्स ताणुवरि ॥ धीरो चिलाइपुत्तो मूइंगलियाहिं चालणी व्व कओ। न य धम्माओ चलिओ तं दुक्करकारयं वंदे।।
(मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा 428-431) (17) (ii) अहवा चिलाइपुत्तो नाणं तहाऽमरत्तं च। उवसम - विवेग - संवरपयसुमरणमेत्तसुयनाणो॥
(भक्तपरिज्ञा प्रकर्णक, गाथा 88) (17) (iii) गाढप्पहारविद्धो पूइंगलियाहिं चालणीव कदो। तध वि य चिलादपुत्तो पडिवण्णो उत्तमं अलु
(भगवती अराधना , गाथा 1548) (17) (iv) ज्ञात्वा चिलातमित्रं च कायोत्सर्ग व्यवस्थितम् ...
... दीर्घमस्तकयुक्ताभिः कोटिकाभिः पुनः पुनः। ... अहोरात्रद्वयं सार्धमुपसर्गमिमं द्रुतम सोढा
चिलातमित्रोऽआत् सिद्धि सर्वार्थपूर्वकाम्। (चिलातमित्र कथानक ; बृहत्कथाकोश, कथा 140, श्लोक 31-36)