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315 विकथाओं से सदैव दूर रहने वाला हो, पाँच महाव्रतों से युक्त हो, पाँच समितियों का पालन करने वाला हो, षड्निकाय की हिंसा से विरत रहने वाला हो, सात भयों से रहित हो, आठमदस्थानों का त्याग करने वाला हो, आठप्रकार के कर्मों का नाश करने वाला हो, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य गुप्तियों से गुप्त हो तथा दस प्रकार के श्रमणधर्म का पालन करता हो और सदैव सजग रहता हो, यदि वह संस्तारक पर आरुढ़ होता है तो उसका संथारा सुविशुद्ध होता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अहंकार से मदोन्मत्त हो, गुरु के समक्ष अपने अपराधों की आलोचना नहीं करता हो, दर्शन से मलिन अर्थात् मिथ्यादृष्टि और शिथिल चारित्रवाला हो, फिर भले वह श्रमण जीवन को अंगीकार करके संस्तारक पर आरुढ़ होता हो तो भी उसका संथाराअविशुद्ध ही होता है (31-43)।
संस्तारक के लाभ और सुख की चर्चा करते हुए का है कि संस्तारक पर आरुढ़ होने का प्रथम दिन ही जो लाभ होता है उस अमूल्य लाभ के मूल्य को कहने के लिए इस समय कोई समर्थ नहीं है। संख्यातभव स्थिति वाले कर्मों को भी संस्तारक पर आरुढ़ श्रमण अल्प समय में ही क्षय कर देता है। अहंकार और मोह रहित श्रमण तृणमय संस्तारक पर आरुढ़ होकर भी जिस मुक्ति सुख को प्राप्त करता है उसे चक्रवर्ती कहाँ प्राप्त कर पाता है ? (44-48)।
प्रस्तुत ग्रंथ में साधना के क्षेत्र में समय की गणनाको कोई महत्व नहीं दिया गया है और कहा है कि हे शिष्य ! वर्षों की गणना करने वाले मत बनों, क्योंकि 'गण' में रहकर भी जन्म - मरण की प्रक्रिया को समाप्त नहीं कर पाते हैं (51)।
ग्रंथ में कहा गया है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के तपों की सम्यक् प्रकार से साधना करके हेमंत ऋतु में संस्तारक पर आरुढ़ होना चाहिए।आगे यह भी कहा है कि न तो तृणमय संस्तारक और न प्रासुक भूमि ही समाधिमरण का निमित्त है, वस्तुतः विशुद्ध चारित्र में रमण करने वाला आत्मा ही संस्तारक होता है (53-55)।
प्रस्तुत ग्रंथ में आपत्तिकाल में अकस्मात् समाधिमरण ग्रहण करने वाले जिन पंद्रह व्यक्तियों के दृष्टांत दिए गये हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। हमने आगे इन दृष्टान्तों की तुलना मरणविभक्ति प्रकीर्णक, भगवती आराधनाऔर आगमिक व्याख्या साहित्य से की है जिससे ज्ञात होता है कि ये दृष्टांत श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में