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________________ 313 नहीं होता है जो इस ग्रंथ को सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रचित मानने में बाधा उपस्थित करता हो । अतः बाधक प्रमाण नहीं होने और इसकी विषयवस्तु के अन्य प्रकीर्णकों एवं दिगम्बर तथा यापनीय परंपरा द्वारा मान्य भगवती आराधना आदि ग्रंथों में उपस्थित होने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि इस ग्रंथ का रचनाकाल सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के मध्य कभी रहा होगा। इस प्रकीर्णक की भाषा मुख्यतः महाराष्ट्री प्राकृत है किन्तु इसमें अर्धमागधी शब्द रूप भी बहुलता से उपलब्ध होते हैं इससे यही फलित होता है कि चाहे यह ग्रंथ वल भी वाचना के बाद निर्मित हुआ हो किन्तु इसका आधार प्राचीन ग्रंथ ही रहे हैं । ग्रंथ के रचनाकाल को लेकर हमने जो समय निर्धारित करने का प्रयास किया है वह एक अनुमान ही है। हम विद्वानों से अपेक्षा करते हैं कि इस दिशा में वे अपनी शोधवृत्ति को जारी रखते हुए इस ग्रंथ के रचनाकाल का सम्यक् निर्धारण का प्रयत्न करेंगे। विषयवस्तु : संस्तारक प्रकीर्णक में कुल 122 गाथाएँ हैं। ये सभी गाथाएँ समाधिमरण और उसकी पूर्व प्रक्रिया का निर्देश करती हैं । ग्रंथ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है - सर्वप्रथम लेखक मंगलाचरण के रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव एवं महावीर को नमस्कार करता है । तत्पश्चात् प्रस्तुत ग्रंथ में वर्णित आचार-व्यवस्था को ध्यानपूर्वक सुनने को कहता है ( 1 ) । ग्रंथ में समाधिमरण की साधना को सुविहितों के जीवन का साध्य मानते हुए कहा है कि जीवन के अंतिम समय से इसे स्वीकार करना सुविहितों के लिए विजयपताका फहराने के समान है । समाधिमरण की श्रेष्ठता बतलाते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार दरिद्र व्यक्तियों के लिए सम्पत्ति की प्राप्ति, मृत्युदण्ड प्राप्त व्यक्तियों के लिए मृत्युदण्ड संबंधी आदेश का निरस्तीकरण और योद्धाओं के लिए विजय - पताका फहराना जीवन का लक्ष्य होता है उसी प्रकार सुविहितों के जीवन का लक्ष्य समाधिमरण होता है (2-3)।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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