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कुछ प्रसंगों में तात्कालिक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है, तथापि सामान्यतया जैन आचार्यों ने तात्कालिक मृत्युवरण जिसे प्रकारान्तर से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, कीआलोचना की है। आचार्य समन्तभद्र ने गिरिपतन याअग्निप्रवेश के द्वारा किये जाने वाले मृत्युवरण को लोकमूढ़ता कहा है। (जैन आचार्यों की दृष्टि में समाधिमरण का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं, वरन् देहासक्ति का परित्याग है। उनके अनुसार तो जिस प्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित मानी गई है, उसी प्रकार मृत्यु की आकांक्षा भी दूषित मानी गई है।) समाधिमरण के दोषः
___ जैन आचार्यों ने समाधिमरण के लिए निम्न पाँचों दोषों से बचने का निर्देश किया है
(1) जीवन की आकांक्षा (2) मृत्युकी आकांक्षा। (3) ऐहिक सुखों की आकांक्षा। (4) पारलौकिक सुखों की आकांक्षा और (5) इन्द्रिय - विषयों के भोग की आकांक्षा।
जैन परंपरा के समान बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा और मृत्यु की तृष्णा दोनों को हीअनैतिक माना है। बुद्ध के अनुसार भवतृष्णा और विभव-तृष्णा क्रमशः जीविताशा
और मरणाशा की प्रतीक हैं और जब तक ये आशाएँ या तृष्णाएँ उपस्थित है तब तक नैतिक पूर्णता संभव नहीं है। अतः साधक को इनसे बचते ही रहना चाहिये। लेकिन फिर भी यह प्रश्न तो पूछा ही जाता है कि क्या समाधिमरण मृत्युकी आकांक्षा नहीं हैं ? समाधिमरण और आत्महत्याः
__ जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परंपराओं में जीविताशा और मरणाशा दोनों अनुचित मानी गई हैं। अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या समाधिमरण मरणाकांक्षा नहीं है ? वस्तुतः यह न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही।व्यक्ति आत्महत्याया तोक्रोध केवशीभूत होकर करता है या फिर सम्मान या हितों ................................ 24.रत्नकरण्डकश्रावकाचार, गाथा 22 25. द्रष्टव्य है - दर्शन और चिन्तन: पं.सुखलालजी, पृ. 536