________________
269
(1) उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गुरुयभारोय। जोविहरइ सच्छंदं पावंगच्छदि होदि मिच्छत्तं॥
(सूत्रपाहुड, गाथा 9) अर्थात् जो मुनि उत्कृष्ट चारित्र का पालन कर रहा हो, उग्र तपश्चर्या कर रहा हो तथा आचार्य पद पर आसीन हो फिर भी यदि वह स्वच्छंद विचरण कर रहा हो तो वह । पापी मिथ्यादृष्टि है, मुनि नहीं।
(2) जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू॥
(सूत्रपाहुड, गाथा 12) अर्थात् जो मुनि क्षुधा आदि बाईस प्रकार के परिषदों को सहन करने वाला हों, कर्म क्षयरूप निर्जरा करने वाला हों, वेही नमस्कार करने योग्य हैं।
(3) गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसाभणिया॥
(बोधपाहुड, गाथा 45)
अर्थात् सर्वप्रकार के परिग्रहों से जिनको मोह नहीं हों, बाईस प्रकार के परिषहों तथा कषायों को जो जीतने वाले हों तथा सर्वप्रकार के आरंभ - समारंभ से जो विरत रहते हों, उन मुनि की दीक्षा ही उत्तम है।
(4) धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई। कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया॥
(बोधपाहुड, गाथा 46) अर्थात् जो मुनि धन्य-धान्य, सोना-चाँदी, वस्त्र-आसन आदि से रहित हो, उनकी दीक्षा ही उत्तम है अर्थात् वे ही वास्तव में मुनि है।