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________________ 224 'तीनों उत्तरा एवं रोहिणी नक्षत्र में शिष्य को प्रव्रज्या उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) एवं गणी या वाचक पद देने की अनुज्ञा है। आर्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा तथा मूल-इन चार नक्षत्रों में गुरु के पास प्रतिमाधारण करने को कहा गया है। धनिष्ठा, शतभिषज, स्वाति, श्रवणऔर पूर्णवसु इन नक्षत्रों में गुरु की सेवाऔर चैत्यों की पूजा करनी चाहिए।' (3) करणद्वार - तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। एक तिथि के दो करण होते हैं। गणिविद्या में ग्यारह करणों का उल्लेख मिलता है। बव, बालव, कालव स्त्रीलोचन, गर वणिज् और विष्टि - ये चर करण है जबकि शकुनि , चतुष्पद, नाग, किस्तुध्न स्थिर करण है। (गाथा 42-43) यही पर बताया गया है कि बव, बालव, कालव, वणिज, नाग एवं चतुष्पद करण में प्रव्रज्या देनी चाहिये। बव करण में व्रतों में उपस्थापन (बड़ी दीक्षा) एवं गणि, वाचक आदि पद प्रदान करना चाहिए। शकुनि एवं विष्टिकरण पादोपगमन संथारे के लिए शुभ माने गये हैं । (गाथा - 44-46) (4) ग्रहदिवसद्वार - जिस दिन की प्रथम होरा का जो गृहस्वामी होता है उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार अथवा दिवस रहता है। ये सात हैं - रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि। गणिविद्या में कहा गया है कि गुरु, शुक्र एवं सोमवार को दीक्षा व्रतों में उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) एवं गणि, वाचक आदि पद प्रदान करना चाहिए। रविवार, मंगलवार एवं शनिवार संयम - साधना एवं पादोपगमन आदि समाधिमरण की क्रियाओं के लिए शुभ है। (गाथा 47-48) (5) मुहूर्तद्वार - तीस मुहूर्त का एक दिन-रात होता है। 30 मुहूर्तों में 15 मुहूर्त दिन के और 15 मुहूर्त रात्रि के होते हैं। गणिविद्या में दिन के पंद्रह मुहूर्त - रुद्र श्रेयस, मित्र, आरभट, सौमित्र, वेरेय, श्रवसु, वृत्त, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन्, द्वीप एवं सूर्य बताये गये हैं। (गाथा 49-53)। __इस प्रकार कुछ रात्रि मुहूर्तों का भी वर्णन प्राप्त होता है परंतु रात्रि में किसी भी कार्य को करने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। मित्र, नन्दा, सुस्थित, अभिजित, चन्द्र, वरुण, 1.गणिविद्या-गाथा 20 से 41 तक।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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