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________________ 98 यहाँ हम एक बात और स्पष्ट रूप से कहना चाहेंगे, वह यह कि आगम ग्रंथों में जो भी कथन हैं, वे सब सापेक्षिक है । कोई भी जिनवचन निरपेक्ष नहीं होते । यदि निरपेक्ष दृष्टि से आगमों का अर्थ किया जाएगा तो जिन बत्तीस आगमों को स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रामाणिक मान रहे हैं, उनमें भी ऐसी अनेक विसंगतियाँ दिखाई जा सकती है जो इनकी परंपरा के विरुद्ध मानी जाएगी । वास्तविकता तो यह है कि प्रारंभ में लोकाशाह और स्थानकवासी परंपरा को बत्तीस आगम ही उपलब्ध हो सके इसीलिए उन्होंने बत्तीस आगमों को ही मान्य रखा और जब एक बार बत्तीस आगमों की परंपरा उनके द्वारा स्वीकार कर ली गई तो फिर उसे परिवर्तित करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। अतः बाद में प्रकीर्णकों के उपलब्ध होने पर भी उन्हें आगम रूप में मान्य नहीं किया गया । प्रकीर्णकों में तित्थोगाली, गणिविद्या आदि एक-दो प्रकीर्णक ऐसे भी हैं जो इनकी परंपरा से कुछ भिन्न कथन करते हों, तो भी संपूर्ण प्रकीर्णक साहित्य को अस्वीकार कर देना उचित नहीं है। ऐसी स्थिति में तो हमें अनेक आगम ग्रंथों को भी अस्वीकार कर देना होगा, क्योंकि उनमें तो इन प्रकीर्णकों की अपेक्षा भी अधिक ऐसे कथन हैं जो इनकी मान्यताओं के विपरीत आते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणिविद्या की अपेक्षा भी अधिक सावद्य उपदेश है।' और जहाँ तक परंपराओं से भिन्न कथन का प्रश्न है तो आगमों में प्रकीर्णकों की अपेक्षा भी जिन प्रतिमा और जिन पूजा के ज्यादा उल्लेख मिलते हैं, क्या ऐसे उल्लेख करने वाले सूर्यप्रज्ञप्ति' स्थानांग, ज्ञाताधर्मकथा' और राजप्रश्नीय' आदि की हम आगम रूप में मानने से इंकार करना चाहेंगे? जो भूल दिगम्बरों ने श्वेताम्बर आगम साहित्य को अमान्य करने को की । संभवत वहीं भूल स्थानकवासी और तेरापंथी प्रकीर्णकों को अमान्य करके कर रहे हैं । इसका जो दुःखद परिणाम है वह यह कि स्थानकवासी और तेरापंथी समाज, विशुद्ध रूप से उपदेशात्मक, तप प्रधान एवं चारित्र प्रधान इस विपुल ज्ञान सम्पदा से वंचित रह गया है । 1. 2. 3. 4. सूर्यप्रज्ञप्ति, 10/17 (श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रंथमाला) । 'चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईयो' - स्थानांगसूत्र - मधुकर मुनि, 4/339। 'पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ' - ज्ञाताधर्मकथा - मधुकर मुनि, 16 / 118 | 'तासि णं जिणपडिमाणं' - राजप्रश्नीयसूत्र - मधुकर मुनि, सूत्र - 177-179 ।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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