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________________ 3 छोड़कर शेष सभी इस संबंध में एकमत हैं कि निर्युक्तियाँ प्राच्य गोत्रीय आचार्य भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं, किन्तु वे किसकी कृतियाँ हैं, इस सम्बन्ध में इन सभी के बीच भी मतवैभिन्य है। इसकी विस्तृत चर्चा हम आगे भद्रबाहु के कृतित्व के संबंध में विचार करते समय करेंगे। आचार्य भद्रबाहु का जीवनवृत्त श्रुतवली आचार्य भद्रबाहु प्रथम के दीक्षा पर्याय के पूर्व के जीवन-वृत्त के संबंध में प्राचीन आगमिक प्रमाण प्रायः अनुपलब्ध हैं । कल्पसूत्र एवं नंदीसूत्र की स्थविरावली में उनका जो निर्देश मिलता है, उसमें कल्पसूत्र में उनके गुरु के रूप में यशोभद्र का, शिष्यों के रूप में गोदास, अग्निदत्त, जिनदत्त और सोमदत्त का उल्लेख है। साथ ही, भद्रबाहु के शिष्य गोदास से गोदासगण प्रारंभ होने और उसकी ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्डवर्द्धनिका और दासीखर्बटिका नामक चार शाखाएँ होने का निर्देश हैं।' यहाँ उनके गृही जीवन से संबंधित दो ही तथ्य उपलब्ध होते हैं - एक तो यह कि उनका गोत्र पाइत्र था, क्योंकि कल्पसूत्र, नंदीसूत्र और दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति- तीनों में ही उनके गोत्र को 'पाइन' कहा गया है। इस उल्लेख की प्रामाणिकता के संबंध में कोई भी शंका नहीं की जा सकती है, क्योंकि उपलब्ध सूचनाओं में ये निर्देश प्राचीनतम और सभी ईसा की पांचवीं शती के पूर्व हैं, फिर भी 'पाइन्न' का जो अर्थ पूर्ववर्ती और परवर्ती आचार्यों एवं विद्वानों ने किया है, वह मुझे समुचित प्रतीत नहीं होता है। प्रायः सभी ने इसका संस्कृत रूपांतरण 'प्राचीन' माना है, जिसका अर्थ पुरातन होता है और इसी आधार पर आचार्य हस्तीमलजी ने तो यह सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है कि " किसी परवर्ती भद्रबाहु की अपेक्षा पूर्ववर्ती होने से उन्हें प्राचीन कहा गया है" किन्तु मेरी दृष्टि में 'पाइन' का अर्थ पौर्वात्य अर्थात् प्राची या पूर्व दिशा का निवासी करना चाहिये । मध्यप्रदेश के ब्राह्मणों में आज भी औदीच्य नामक एक वर्ग है, जो • अपने को पूर्व दिशा से आया हुआ मानता है। सरयूपारीय, पुरवइयां आदि भी पौर्वात्य ब्राह्मण जातियाँ हैं, इससे यह भी फलित होता है - भद्रबाहु भारत के अथवा बिहार के पूर्वीय प्रदेश बंगाल के निवासी थे। उनकी शिष्य परंपरा में कोटिवर्षीया, पौण्डवर्द्धनिका और ताम्रलिप्तिका आदि जो शाखाएँ बनी हैं, वे उन्हीं नगरों के नाम पर हैं, जो बंगाल में विशेष रूप से उसके पूर्वी भाग में स्थित हैं, अतः भद्रबाहु के पाइन्नं नाम गोत्र का फलितार्थ यह है कि वे पौर्वात्य ब्राह्मण थे । 94 "
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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