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उल्लेख मिलता है। यद्यपि इनके रिट्ठनेमिचरिउ के अंत में जम्बू के बाद विष्णु नाम आया है, किन्तु यह अंश जसकीर्त्ति द्वारा प्रक्षिप्त है ।
स्वयम्भू ने सीता के जीव का रावण एवं लक्ष्मण को प्रतिबोध देने सोलहवें स्वर्ग से तीसरी पृथ्वी में जाना बताया है, जबकि धवला टीका के अनुसार 12वें से 16वें स्वर्ग तक के देवता प्रथम पृथ्वी के चित्रा भाग से आगे नहीं जाते हैं ।
पउमचरिउ में अजितनाथ के वैराग्य का कारण म्लानकमल बताया गया है, जबकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में तारा टूटना बताया गया है ।
रविषेण के समान इन्होंने भी महावीर के चरणांगुष्ठ से मेरु के कम्पन का उल्लेख किया है। यह श्वेताम्बर मान्यता है ।
भगवान् के चलने पर देवनिर्मित कमलों का रखा जाना- भगवान् का एक अतिशय माना गया है। यह भी श्वेताम्बर मान्यता है ।
तीर्थंकर का मागधी भाषा में उपेदश देना। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मान्य आगम समवायांग में यह मान्यता है । दिगम्बर परंपरा के अनुसार तो तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है, जो सर्व भाषा रूप होती है।
10. दिगम्बर उत्तरपुराण में सगरपुत्रों का मोक्षगमन वर्णित है, जबकि विमलसूरि के पउमचरियं के आधार पर रविषेण और स्वयम्भू ने भीम एवं भागीरथ को छोड़कर शेष का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना बताया ।
सुश्री कुसुम पटोरिया के अनुसार इन वर्णनों के आधार पर स्वयम्भू यापनीय सिद्ध होते हैं ।
इस प्रकार, इन सभी उल्लेखों में स्वयंभू की श्वेताम्बर मान्यता से निकटता और दिगम्बर मान्यताओं से भिन्नता यही सिद्ध करती है कि वे यापनीय परंपरा से सम्बद्ध रहे होंगे।
पुनः, स्वयंभू मुनि नहीं, अपितु गृहस्थ ही थे, उनकी कृति 'पउमचरिउ' से जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध होती हैं, उनके आधार पर उन्हें यापनीय परंपरा से संबंधित माना जा सकता है।
स्वयंभू का निवास स्थल संभवतः पश्चिमोत्तर कर्नाटक रहा है।' अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उस क्षेत्र पर यापनीयों का सर्वाधिक प्रभाव था, अतः स्वयंभू के यापनीय संघ से संबंधित होने की पुष्टि क्षेत्रीय दृष्टि से भी हो जाती है ।