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________________ 176 किसी अन्य परंपरा का अनुसरण करने वाले थे। यापनीयों में अपवाद मार्ग में दीक्षित होते समय राजा आदि का नग्न होना आवश्यक नहीं माना गया था। चूंकि वरांगकुमार राजाथे, अतः संभव है कि उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित होते दिखाया गया हो। यापनीय ग्रंथ भगवती आराधना एवं उसकी अपराजिता टीका में हमें ऐसे निर्देश मिलते हैं, राजा आदि कुलीन पुरुष दीक्षित होते समय या संथारा ग्रहण करते समय अपवादलिंग (सवस्त्र) रख सकते हैं"। पुनः, वरांगचरित में हमें मुनि की चर्या के प्रसंग में हेमन्तकाल में शीत-परिषह सहते समय मुनि के लिए मात्र एक बार दिगम्बर शब्द का प्रयोग मिला है । सामान्यतया ‘विशीर्णवस्त्रा' शब्द का प्रयोग हुआ है। एक स्थल पर अवश्य मुनियों को निरस्त्रभूषा' कहा गया है, "किन्तु निरस्त्रभूषा का अर्थ साज-सज्जा से रहित होता है, नग्न नहीं। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिन पर वरांगचरित की परंपरा का निर्धारण करते समय गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मैं चाहूँगा कि आगे आने वाले विद्वान् संपूर्ण ग्रंथ कागंभीरतापूर्वक आलोडन करके इस समस्या पर विचार करें। __साध्वियों के प्रसंग में चर्चा करते समय उन्हें जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को धारण करने वाली अथवा विशीर्ण वस्त्रों में आवृत्त देह वाली कहा गया है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि वरांगचरितकार जटासिंहनन्दी को स्त्री दीक्षा और सवस्त्र दीक्षा मान्य थी, जबकि कुन्दकुन्दस्त्री दीक्षा का स्पष्ट निषेध करते है। (11) वरांगचरित में स्त्रियों के दीक्षा का स्पष्ट उल्लेख है, उसमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि स्त्री को उपचार से महाव्रत होते हैं, जैसा कि दिगम्बर परंपरा मानती है। इस ग्रंथ में उन्हें तपोधना, अमितप्रभावी, गणाग्रणी, संयमनायिका जैसे सम्मानित पदों से अभिहित किया गया है। साध्वी वर्ग के प्रति ऐसा आदरभाव कोई श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ही प्रस्तुत कर सकता है । अतः, इतना निश्चित है कि जटासिंहनन्दी का वरांगचरित कुन्दकुन्द की उस दिगम्बर परंपरा का ग्रंथ नहीं हो सकता, जो स्त्रियों की दीक्षा निषेध करती हो, या उनको उपचार से ही महाव्रत कहे गये हैं- ऐसा मानती हो। कुन्दकुन्दने सूत्रप्राभृत गाथा क्रमांक 25 में एवं लिङ्गप्राभृत गाथा क्रमांक 20 में स्त्री दीक्षा कास्पष्ट निषेध किया है, यह हम पूर्व में दिखा चुके हैं। । (12) वरांगचरित में श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान की चर्चा है। यह तथ्य दिगम्बर परंपरा के विपरीत है। उसमें लिखा है कि वह नृपति मुनि पुङ्गवों को
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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