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दुःख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनंद प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर नीरस मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है। वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को व्यक्त करते हुए भागवत, जिसमें गीता के चिंतन का ही विकास देखा जाता है, के सप्तम स्कन्ध में प्रह्लाद ने भी स्पष्ट रूप से कहा था कि -
'प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामाः । मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ॥ नेतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्षु एको।
नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनृपश्ये।।' हे प्रभु! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि तो अब तक काफी हो चुके हैं, जो मंगल में जाकर मौन साधना किया करते थे। किंतु उनमें परार्थ-निष्ठा नहीं थी। मैं तो अकेला इन सब दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता। वहित बनाम लोकहित का प्रश्न
जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया-- प्रारम्भिक श्रमणधर्म एकान्त साधना और वैयक्ति मुक्ति पर ही बल देते थे। यद्यपि हमें उनकी यह एकान्त साधना और वैयक्तिक मुक्ति की अवधारणा जन कल्याण के विपरीत नहीं थी, फिर भी उसमें लोकहित का एक वेधायक पक्ष उपलब्ध नहीं होता। सम्भवतः भगवान बुद्ध प्रथम श्रमण थे, जिन्होंने लोकमंगल की चेतना को विकसित किया। पालि अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध का कथन है कि भेक्षुओं, जैसे पानी का तालाब गंदा हो, चंचल हो और कीचड़युक्त हो, तो वहां किनारे पर खड़े आंख वाले आदमी को भी न सीप दिखाई दे, न शंख, न कंकड़, न पत्थर, न वलती हुई या स्थित मछलियां। यह ऐसा क्यों? भिक्षुओं, पानी के गंदला होने के कारण। इसी प्रकार भिक्षुओं, इसकी सम्भावना नहीं है कि वह भिक्षु मैले (राग-द्वेषादि से युक्त) चित्त से आत्महित जान सकेगा, परहित जान सकेगा, उभयहित जान सकेगा और सामान्य मनुष्य धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्यज्ञान-दर्शन को जान सकेगा। इसकी सम्भावना है कि भिक्षु निर्मल चित्त से आत्महित को जान सकेगा, परहित को जान सकेगा, उभयहित को जान सकेगा, सामान्य मनुष्य धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्यज्ञान-दर्शन को जान सकेगा""
बुद्ध के इस कथन का सार यही है कि जीवन में जब तक राग-द्वेष और मोह की
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