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निराकरण भी किया जो सामाजिक जीवन को दूषित करते थे। फिर भी वे अपनी निवृत्तिमार्गी दृष्टि के कारण विधायक सामाकिता का सृजन नहीं कर सके। निवृत्तिमार्गी परम्परा में सामाजिक-चेतना का सर्वाधिक विकास यदि कहीं हुआ है तो वह महायान परम्परा में। महायान परम्परा में सामाजिक चेतना का जो विकास हुआ है, उसे उसके ग्रंथ बोधिचर्यावतार में बहुत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। समाज की आंगिकता का सिद्धांत, जो आज बहुत चर्चा का विषय है, का स्पष्ट उल्लेख भी इस ग्रंथ में प्राप्त होता है।
बौद्धधर्म की महायान शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता का प्राण माना। वहां तो साधक लोकमंगल के आदर्श की साधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक निर्वाण में कोई रुचि नहीं रहती। महायानी साधक कहता है- दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनंद मिलता है, वही बहुत काफी है। अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरस है, उससे हमें क्या लेना देना।
साधना के साथ सेवा की भावना का कितना सुंदर समन्वय है। लोकसेवा, लोक-कल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हमें बरबस ही श्री भरतसिंह जी उपाध्याय के स्वर में स्वर मिलाकर कहना पड़ता है, कितनी उदात्त भावना है। विश्वचेतना के साथ अपने को आत्मसात करने की कितनी विह्वलता है। परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है। आचार्य शांतिदेव भी केवल परोपकार या लोक-कल्याण का संदेश नहीं देते, वरन् उस लोक-कल्याण के सम्पादन में भी पूर्ण निष्कामभाव पर बल देते हैं। निष्कामभाव से लोक-कल्याण कैसे किया जाए, इसके लिए शांतिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, वे उनके मौलिक चिंतन का परिणाम है। गीता के अनुसार व्यक्ति ईश्वरीय प्रेरणा को मानकर निष्कामभाव से कर्म करता रहे अथवा स्वयं को और सभी साथी प्राणियों को उसी परब्रह्म का ही अंश मानकर सभी में आत्मभाव जागृत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता रहे। लेकिन निरीश्वरवादी और अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में तो यह सम्भव नहीं था। यह तो आचार्य की बौद्धिक प्रतिभा ही है, जिसने मनोवैज्ञानिक आधारों पर निष्कामभाव से लोकहित की अवधारणा को सम्भव बनाया। समाज के सावयवता के जिस सिद्धांत पर ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्य विचारक लोकहित
और स्वहित में समन्वय साधते हैं और उन विचारों की मौलिकता का दावा करते हैं, वे विचार आचार्य शांतिदेव के ग्रंथों में बड़े स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं और उनके आधार पर उन्होंने निःस्वार्थ कर्मयोग की अवधारणा को भी सफल बनाया है। वे कहते हैं कि जिस
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