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________________ निवृत्ति प्रधान बना, किंतु मानव अस्तित्व इस प्रकार का है कि वह न केवल भोग पर और न केवल त्याग पर खड़ा रह सकता है, उसे जीवन के लिए भोग और त्याग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, वासना की संतुष्टि एवं विवेक का विकास सभी आवश्यक है। दैहिक और सामाजिक मूल्यों के साथ ही उसके लिए नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य भी आवश्यक है। अतः परिणाम यह हुआ कि भोग एवं त्याग के ऐकान्तिक आधारों पर खड़ी हुई धर्म-परम्पराएं उसे अपने जीवन का सम्यक् समाधान नहीं दे सकीं। परिणामस्वरूप भोग और त्याग तथा प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक समन्वय अथवा सम्यक् संतुलन बनाने का प्रयत्न हुआ। इस समन्वय की धारा को हम सर्वप्रथम ईशावास्योपनिषद् में देखते हैं जहां तेन त्यक्तेन भुंजिथा' में त्याग और भोग का समन्वय किया गया है। वैदिक धारा में विकसित औपनिषदिक चिंतन इस समन्वय का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। यही समन्वय की धारा आगे चलकर गीता में अधिक पुष्पित एवं पल्लवित होती है। गीता की जीवन दृष्टि ईशावास्योपनिषद की जीवन दृष्टि का ही एक विकसित रूप है। जिस प्रकार वैदिक धारा में उपनिषद् एवं गीता समन्वय की दृष्टि को लेकर आगे आते हैं उसी प्रकार श्रमण परम्परा में बौद्धधर्म समन्वय का सूत्र लेकर आगे आता है। यद्यपि प्रारम्भिक बौद्धधर्म ने प्रवृत्ति तथा निवत्ति के मध्य या व्यक्ति और समाज के मध्य एक समन्वय का प्रयत्न तो किया था किंतु उसे विकसित किया उसकी महायान परम्परा ने। ___ वैदिक परम्परा में यदि गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य एक उचित समन्वय का प्रयास करती है, तो श्रमण परम्परा में महायान सम्प्रदाय प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक सांग-संतुलन को प्रस्तुत करता है। इसी दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भगवद्गीता और महायान परम्परा एक दूसरे के अधिक निकट हैं। दोनों में कोई अंतर है तो वह अंतर उनके उद्गम स्थल या उनकी मूलधारा का है। अपने उद्गम के दो भिन्न केंद्रों पर होने के कारण ही उनमें भिन्नता रही हुई है। वे अपनी मूलधारा से टूटना नहीं चाहते अन्यथा दोनों की समन्वयात्मक जीवनदृष्टि लगभग समान है। अनेक तथ्यों के संदर्भो में हम उनकी इस समन्वयात्मक जीवनदृष्टि को देख सकते हैं। गृहस्थधर्म बनाम-संन्यास प्रारम्भिक वैदिक धर्म में संन्यास का तत्त्व अनुपस्थित था, गृहस्थ जीवन को ही 72
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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