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दुर्भाग्य ही था कि पंचवर्गी भिक्षुओं को छोड़कर शेष सभी आचार्य उस काल तक कालकवलित हो चुके थे, फिर भी बुद्ध के द्वारा उनके प्रति प्रदर्शित आदरभाव उनकी उदार और व्यापक दृष्टि का परिचायक है। यद्यपि बौद्धधर्म में अन्य तीर्थिकों के रूप में पूर्णकश्यप, निगंठनाटपुत्त, अजितकेशकंबलि, मंखलिगोशाल आदि की समालोचना हमें उपलब्ध होती है, किंतु ऐसा लगता है कि यह सब परवर्ती साम्प्रदायिक अभिनिवेश का ही परिणाम है। बुद्ध जैसा महानस्वी इन वैचारिक दुराग्रहों और अभिनिवेशों से युक्त रहा हो ऐसा सोचना सम्भव नहीं है।
पुनः बौद्धधर्म मूलतः एक कर्मकाण्डी धर्म न होकर एक नैतिक आचार पद्धति है। एक नैतिक आचार पद्धति के रूप में वह धार्मिक दुराग्रहों और अभिनिवेशों से मुक्त रह सकता है। उसके अनुसार तृष्णा की समाप्ति ही जीवन का परम श्रेय है और तृष्णा की परिसमाप्ति के समग्र प्रयत्न किसी एक धर्म परम्परा से सम्बद्ध नहीं किए जा सकते। वे सभी उपाय जो तृष्णा के भेदन में उपयोगी हों बौद्धधर्म को स्वीकार हैं। शीलवान, समाधिवान
और प्रज्ञावान होना बौद्ध विचारणा का मन्तव्य है किंतु इसे हम केवल बौद्धों का धर्म नहीं कह सकते। यह धर्म का सार्वजनीन और सार्वकालिक स्वरूप है और बौद्धधर्म इसे अपनाकर व्यापक और उदार दृष्टि का ही परिचायक बनता है। बौद्धधर्म में धर्म (साधना-पद्धति) एक साधन है वह पकड़कर रखने के लिए नहीं है और उसे भी छोड़ना ही है, अतः वह साधना के किसी विशिष्ट मार्ग का आग्रही नहीं है। उपसंहार
वस्तुतः वैयक्तिक भिन्नताओं के आधार पर साधनागत और आचारगत भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। अतः मानवीय एकता और मानवीय संघर्षों की समाप्ति के लिए एक धर्म का नारा न केवल अशक्य है अपितु अस्वाभाविक भी है। जब तक व्यक्तियों में रुचिगत और स्वभावगत भेद है तब तक साधनागत भेद भी अपरिहार्य रूप से बने रहेंगे। इसीलिए तो बुद्ध ने किसी एक यान का उपदेश न देकर विविध यानों (धर्म मार्गों) का उपदेश दिया था। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इन साधनागत भेदों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समन्वित कर तथा उनकी उपादेयता को स्वीकार कर एक ऐसी जीवनदृष्टि का निर्माण करें जो सभी की सापेक्षिक मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए मानव कल्याण में सहायक बन सके।
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