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________________ जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है कि सिद्धसेन दिवाकर स्पष्ट रूप से तो अपने ग्रंथ में बौद्धों का नाम लेकर उनका खण्डन नहीं करते हैं, किंतु प्रमाणलक्षणकी उनकी यह परिभाषा एक ओर ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धविज्ञानवाद (योगाचार) का, दूसरी ओर बाह्यार्थवादी मीमांसकों और नैयायिकों की ऐकांतिक मान्यताओं का खण्डन कर उनमें समन्वय करती है। ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धविज्ञानवाद अर्थात् योगाचारदर्शन बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है, इसलिए उनके अनुसार प्रमाण (ज्ञान) स्वप्रकाशक है। दूसरे शब्दों में ज्ञान अपने को ही जानता है। जैन दार्शनिकों में सिद्धसेन के पश्चात् अकलंक, विद्यानंद, वादिदेवसूरि, हेमचंद्र आदि सभी अपने सम्बंधी ग्रंथों में बाह्यार्थ का निषेध करने वाले या यह मानने वाले कि ज्ञान केवल स्व प्रकाशक है, विज्ञानवादी बौद्धों का विस्तार से खण्डन करते हैं। उनकी समीक्षा का सार यह है कि ज्ञान से भिन्न ज्ञेय रूप बाह्यार्थ का अभाव मानने पर स्वयं ज्ञान के अभाव का प्रसंग उपस्थित होगा। क्योंकि ज्ञान ज्ञेय के अभाव में संभव नहीं है, इसके विरोध में बौद्धों का उत्तर यह है कि स्वप्न आदि में अर्थ के अभाव में ज्ञान होता है, किंतु उनका यह कथन सार्थक नहीं है। प्रथम तो यह कि सभी ज्ञान अर्थ के बिना होते हैं यह मानना युक्तिसंगत नहीं है, दूसरे यह कि स्वप्न में जिन वस्तुओं का अनुभव होता है, वे उसके पूर्व यथार्थ से अनुभूत होती हैं यहां यह भी ज्ञातव्य है कि - सिद्धसेन दिवाकर ने अपने प्रमाणलक्षण की चर्चा में उसे अपूर्व अर्थ का ग्राहक अथवा अनधिगतज्ञान नहीं माना है। जहां तक धर्मकीर्ति द्वारा प्रमाण को अविसंवादक मानने का प्रश्न है जैन परम्परा सिद्धसेन दिवाकर ने भी न्यायावतार में प्रमाण को बाधविवर्जित कहा है। यद्यपि बाधविवर्जित और अविसंवादी में आंशिक समानता और आंशिक अंतर है, इसकी चर्चा आगे की गई है। जैन दर्शन में अकलंक एक ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने अष्टसहस्त्री में प्रमाणलक्षण का निरूपण करते हुए प्रमाण को अविसंवादी एवं अनधिगत अर्थ का ज्ञान माना है (प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् अष्टशती, अष्टसहस्त्री, पृ. 175)। यहां हम देखते हैं कि अकलंक ने बौद्ध दार्शनिकों में दिग्नांग और धर्मकीर्ति दोनों प्रमाणलक्षण को समन्वित कर अपना प्रमाणलक्षण बनाया है। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्वयं धर्मकीर्ति ने भी प्रमाणलक्षण में अविसंवादिता के साथ-साथ अनधिगतता को स्वीकार किया था। इस प्रकार प्रमाणलक्षण के निरूपण में बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति और जैनाचार्य अकलंक दोनों का मंतव्य समान हैं यही कारण है कि कुछ विद्वान् स्पष्ट रूप से 27
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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