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________________ उल्लेख किया है, अपितु उनके ग्रंथों के उनके मंतव्यों को उद्धृत कर उनकी समीक्षा भी की है। इनके पश्चात् भी जैन न्याय की यह परम्परा यशोविजय, विमलदास आदि के काल तक अर्थात् लगभग 18वीं शती तक चलती रही और जैन आचार्य बौद्ध मंतव्यों को पूर्व पक्ष के रूप में रखकर उनकी समीक्षा करते रहे। यही नहीं, बीसवीं शती में भी पं. सुखलालजी, पं. दलसुख भाई, डॉ.नथमलजी टाटिया, मुनि जम्बूविजयजी आदि जैन विद्वान् बौद्ध प्रमाणशास्त्र के ज्ञाता रहे हैं। मुनि जम्बूविजयजी ने तो तिब्बती सीखकर द्वादशारनयचक्र जैसे प्राचीन त्रुटितग्रंथ का पुनः संरक्षण किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि 5वीं शती से लेकर 20वीं शती तक अनेक जैन आचार्य बौद्ध प्रमाणशास्त्र के ज्ञाता और समीक्षक रहे हैं, किंतु बौद्ध न्याय का विकास भारत में लगभग 11वीं-12वीं शती के बाद अवरुद्ध हो गया। प्रमाणलक्षण बौद्धदर्शन में प्रमाणलक्षण के निरूपण के सम्बंध में तीन दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं- सर्वप्रथम दिग्नांग ने अपने ग्रंथ प्रमाणसमुच्चय में स्मृति, इच्छा, द्वेष आदि को पूर्व अधिगत विषय का ज्ञान कराने वाला होने से प्रमाण का विषय नहीं माना है इसी आधार पर दिग्नांग के टीकाकार जिनेन्द्रबुद्धि ने प्रमाणसमुच्चय की टीका में प्रमाण को अज्ञात अर्थ का ज्ञापक कहा है। उनके पश्चात् आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाण की परिभाषा देते हुए प्रमाण अविसंवादीज्ञानम् कहकर प्रमाण को अविसंवादी ज्ञान कहा है। यद्यपि उन्होंने प्रमाण की यह स्वतंत्र परिभाषा दी है, किंतु उन्होंने अज्ञातार्थप्रकाशकोवा' कहकर दिग्नांग की प्रमाण की पूर्व परिभाषा को भी स्वीकार किया है। बौद्ध परम्परा में प्रमाणलक्षण के सम्बंध में तीसरा दृष्टिकोण अर्थसारूप्यस्य प्रमाणम्' के रूप में प्रस्तुत किया गया है, किंतु प्रस्तुत प्रसंग में हमारा विवेचन धर्मकीर्ति तक सीमित है। अतः हम प्रथम एवं द्वितीय प्रमाणलक्षण की ही जैन दृष्टि से समीक्षा करेंगे, क्योंकि ये दोनों लक्षण धर्मकीर्ति को भी मान्य हैं। उनके द्वारा तृतीय लक्षण वस्तुतः प्रमाणफल के रूप में विवेचित है। धर्मकीर्ति का कथन है कि ज्ञान का अर्थ के साथ जो प्रारूप या सादृश्य है वही प्रमाण है। जहां तक अनाधिगत या अज्ञात अर्थ के ज्ञापक ज्ञान को प्रमाण मानने का प्रश्न है, मीमांसक और बौद्ध दोनों ही इस सम्बंध में एकमत प्रतीत होते हैं। जैन आचार्यों में अकलंक (8वीं शती), माणिक्यनंदी आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी प्रमाण को अपूर्व अर्थ का ज्ञापक माना था, किंतु कालांतर में जैन दार्शनिकों को प्रमाण के इस लक्षण को स्वीकार करने में 25
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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