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इसके पश्चात् वैदिक परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का क्रम आता है। मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक
और नास्तिक के रूप में किया है। नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वे छ: प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश हुआ हैं आस्तिक-वैदिक दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा का समावेश हुआ है। इन्होंने पाशुपत दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अवश्य है, जो उसे पूर्व उल्लेखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शन-संग्राहक ग्रंथों से अलग करती है वह यह कि इस ग्रंथ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कहकर किया गया है कि इन प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे। चूंकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किए हैं। इस प्रकार प्रस्थान-भेद में यत्किंचित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है, किंतु यह उदारता केवल वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के संदर्भ में ही है, नास्तिकों का निराकरण करना तो प्रस्थान-भेद एवं सर्वदर्शनकौमुदीकार को इष्ट ही है। इस प्रकार दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में हरिभद्र की जो निष्पक्षता और उदारदृष्टि है वह हमें अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में नहीं मिलती है। यद्यपि वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले अनेक ग्रंथ लिखे जा रहे हैं, किंतु उनमें भी कुछ लेखकों का उद्देश्य तो कहीं न कहीं अपने इष्ट दर्शन को ही अंतिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करना प्रतीत होता है।
हरिभद्र के पश्चात् जैन परम्परा में लिखे गए दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में अज्ञाताकर्तृक 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है, किंतु इतना निश्चित है कि यह ग्रंथ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण में ‘सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वर' ऐसा उल्लेख है। पं. सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का ही अनुसरण करती है। अंतर मात्र यह है कि जहां हरिभद्र का ग्रंथ पद्य में है वहां सर्वसिद्धांतप्रवेशक गद्य में है। साथ ही यह ग्रंथ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय
की अपेक्षा कुछ विस्तृत भी है। इसमें बौद्ध दर्शन पर भी एक अध्याय है। जैन परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि