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________________ प्रकार की बताया है- (1) निर्विकल्प-स्थिति और (2) निर्विकल्प-बोध। निर्विकल्प स्थिति भी दो प्रकार की है- एक तो जड़ता रूप निर्विकल्प स्थिति जैसे प्रगाढ़-निद्रा, मूर्छा, बेहोशी आदि, इसका साधना में कोई स्थान नहीं है। यह एक अचेतन दशा है, जैन दर्शन के अनुसार यह निर्विकल्प-स्थिति सभी असंज्ञी (विवेक-क्षमता से रहित), अविकसित, पृथ्वी, अप, वायु, अग्नि और वानस्पतिकायिक जीवों में भी पाई जाती है। गहननिद्रा में भी जीव निर्विकल्पस्थिति वाला होता है। आधुनिक मनोविज्ञान में यह अचेतन मन (uniconcious mind) की दशा है। दूसरी चिन्मयतारूप निर्विकल्प स्थिति है, किसी अभ्यास से आई निर्विकल्प (समाधिस्थ) होने से साधक को 'मैं आनन्दित हूं' यह अनुभव होता है तथा इसमें अहंभाव बना रहता है। इसे पातंजलयोग में सम्प्रज्ञात समाधि कहा है। अन्य दृष्टि में यह उपशम की स्थिति है। इसमें वासना (विकार) के संस्कारों का उदय नहीं होता किंतु सुप्त (सत्ता) अवस्था में अवचेतन मन (अंतःकरण) में रहते हैं। जो कुछ काल के पश्चात् विकल्प रूप में उदय हो जाते हैं। जब यह समाधिस्थ निर्विकल्प स्थिति सहज एवं स्वाभाविक हो जाती है, उसके लिए किसी अभ्यास एवं प्रयत्न नहीं करना होता तथा चित्त अहं शून्य हो जाता है, जिसे बौद्ध दर्शन ने धर्ममेघ पारमिता तथा पातंजलयोग एवं जैनाचार्य हरिभद्र ने धर्ममेघसमाधि कहा है। तब निर्विकल्पबोध होता है एवं साधक निर्वाण का अधिकारी होता है। निर्विकल्प बोध तो केवल विवेकशील और आत्म सजग मानव में ही सम्भव हैं। इसलिए ध्यान या विपश्यना की साधना भी उसी के द्वारा संभव है और वही निर्वाण का अधिकारी होता है। निर्वाण या मोक्ष निर्विकल्प स्थिति नहीं, निर्विकल्प बोध है। साधना की दृष्टि से निर्विकल्प स्थिति में विकार नहीं, निर्विकल्प बोध है। साधना की दृष्टि से निर्विकल्प स्थिति में विकार दबता है, मिटता नहीं है। इसी बात को जैन-परम्परा में उपशम-श्रेणी कहा गया है। निर्विकल्प बोध वस्तुतः आत्मसजगता या अप्रमत्तता की स्थिति है। इसमें चेतना लुप्त नहीं होती, अपितु सजग बनी रहती है। निर्विकल्प-स्थिति सदैव नहीं रहती, वह नियमतः अल्पकालिक ही है, किंतु निर्विकल्प बोध में समस्त कर्म-संस्कार (विकार) क्षय हो जाते हैं। इसे जैन दर्शन में क्षपकश्रेणी कहा है। इससे कैवल्य की उपलब्धि होती है, जो सदा बनी रहती है। निर्विकल्प स्थिति सदैव नहीं रहती वह नियमतः होती तो अल्पकालिक ही है, किंतु निर्विकल्प-बोध तो दीर्घकालीन भी हो सकता है। आध्यात्मिक विकास निर्विकल्प स्थिति से नहीं, निर्विकल्प बोध से होता है। (97)
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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