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का सही अर्थ क्या है? इसे श्वेताम्बर आगमों के ज्ञान के अभाव में वसुनन्दी जैसे समर्थ दिगम्बर ढीकाकार भी नहीं समझ सके हैं। इसी प्रकार, 'भगवती आराधना' के 'ठवणायरियो' शब्द का अर्थ पं. कैलाशचन्द्रजी जैसे दिगम्बर परम्परा के उद्भट विद्वान् भी नहीं समझ सके और उसे अस्पष्ट कह कर छोड़ दिया, क्योंकि वे श्वेताम्बर आगमों एवं परम्परा से गहराई से परिचित नहीं थे, जबकि अर्धमागधी साहित्य का सामान्य अध्येता भी 'पर्युषणाकल्प' और 'स्थापनाचार्य' के तात्पर्य से सुपरिचित होता है। इसी प्रकार, 'समयसार' के 'अपदेससुत्तमझं का सही अर्थ समझना हो या 'नियमसार' के आत्मा के विवरण को समझना हो, तो आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करना होगा। अतः, प्राचीन एवं समसामयिक भाषाओं के साहित्य और परम्परा का ज्ञान सभी के लिए अपेक्षित है। यह बात केवल जैनधर्म के दोनों सम्प्रदायों तक ही सीमित नहीं है, अपितु अन्य भारतीय परम्पराओं के सन्दर्भ में भी समझना चाहिए। मैं स्पष्ट रूप से यह मानता हूँ कि बौद्ध पाली त्रिपिटक के अध्ययन के बिना जैन आगमों को और जैन आगमों के बिना त्रिपिटक का अध्ययन पूर्ण नहीं होता है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके सही अर्थ एक दूसरे के ज्ञान के बिना सम्यक् रूप से नहीं समझे जा सकते हैं। 'अर्हत्' शब्द के अरहत, अरहंत, अरिहंत, अरुहंत आदि शब्द-रूप पाली और अर्धमागधी में न केवल समान हैं, अपितु उनकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्याएँ भी दोनों परम्परा में समान हैं। आज भी जिस प्रकार 'आचाराङ्ग' और 'इसिभासियाई' जैसे अर्धमागधी आगमों को समझने के लिए बौद्ध और औपनिषदिक परम्पराओं का अध्ययन अपेक्षित है, वैसे ही षट्खण्डागम को समझने के लिए श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ – 'प्रज्ञापना', 'पञ्चसंग्रह' - जिसमें 'कसायपाहुड' भी समाहित है, और श्वेताम्बर कर्मग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षित है। यदि आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' को समझना है, तो बौद्धों की 'माध्यमिककारिका' अथवा हिन्दुओं की 'माण्डूक्यकारिका' को पढ़ना आवश्यक है। दूसरी परम्परा के ग्रन्थों के अध्ययन का डॉ. टाँटियाजी का अच्छा सुझाव है; किन्तु यह किसी एक परम्परा के लिए नहीं, अपितु दोनों के लिए आवश्यक है। श्वेताम्बर विद्वान् तो शौरसेनी साहित्य का अध्ययन भी करते हैं; किन्तु अधिकांश दिगम्बर विद्वान आज भी अर्धमागधी साहित्य से प्रायः अपरिचित हैं, अतः उन्हें ही इस सुझाव की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।