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कारण हैं, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे
1. भारत में वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मन्त्ररूप में मानकर उनके स्वर - व्यञ्जन
की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर अधिक बल दिया गया। उनके लिए शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रही और अर्थ गौण रहा। यही कारण है कि आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यन्त सतर्क रहते हैं; किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्दरूप से यथावत् बने रहे। इसके विपरीत, जैन - परम्परा में यह माना गया कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं, उनके वचनों को शब्दरूप तो गणधर आदि के द्वारा किया जाता है, अतः जैनाचार्यों के लिए अर्थ या कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्दरूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते गए। इसी क्रम में ईसा की चतुर्थ शती में अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी - प्रभावित और महाराष्ट्री - प्रभावित संस्करण अस्तित्व में आये।
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आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए, उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्षु संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती थी, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएं आ गयीं।
3. जैन भिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव पड़ता ही था, फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और उनमें तत्-तत् क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता गया। उदाहरण के रूप में, जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम- दोनों की ही बोलियों का प्रभाव आ जाता है, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो जाती है।
सामान्यतया-बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के 200-300 वर्ष के अन्दर ही