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________________ मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? जैन विद्या के कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर - दिगम्बर किन्हीं भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो. टॉटिया के व्याख्यान के कुछ अंश उद्धृत करते हैं। डॉ. सुदीप जैन ने 'प्राकृत विद्या' जनवरी-मार्च, 1996 के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है हाल ही में श्री लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो. नथमलजी टाँटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि 'श्रमण साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के 'आचाराङ्गसूत्र', 'दशवैकालिकसूत्र' आदि हों, अथवा दिगम्बरों के 'षट्खण्डागमसूत्र', 'समयसार' आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका में एक वृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात कर दिया। इसी प्रकार, श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्त्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य मानने पर जोर देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इन स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को भी 500 ई. से परवर्ती मानना पड़ेगा।' उन्होंने स्पष्ट किया कि 'आज भी 'आचाराङ्गसूत्र' आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबकि नये संस्करणों में उन शब्दों का अर्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं।' उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'दिगम्बर जैन साहित्य में ही शौरसेनी भाषा के प्राचीन रूप सुरक्षित एवं उपलब्ध हैं। ' निस्सन्देह, प्रो. टॉटिया जैन और बौद्ध विद्याओं के वरिष्ठतम विद्वानों में से एक रहे हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा; किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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