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________________ मानता हूँ कि आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों का इस दृष्टि से पुनः सम्पादन होना चाहिए। इस प्रक्रिया के विरोध में जो स्वर उभरकर सामने आये हैं, उनमें जौहरीमलजी पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता और श्रद्धाशील - दोनों ही हैं, फिर भी तुलसी - प्रज्ञा में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है, उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब-सा गया है। उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन हैं। अतः उन पर व्याकरण के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार ही बोलें। यह कोई तर्क नहीं, मात्र उनकी श्रद्धा का अतिरेक ही है। प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्धमागधी आगम अपने वर्त्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी है ? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि ऐसा है, तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों है ? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है, तो कहीं नौ क्यों है? कहीं चार स्थावर और दो त्रस हैं, कहीं तीन त्रस और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पाँच स्थावर और एक त्रस । यदि आगम शब्दशः महावीर की वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप से अंग-आगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों के उल्लेख क्यों हैं? यदि कहा जाय कि भगवान् सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया, तो प्रश्न यह है कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था, वह भूतकाल में क्यों कहा गया। क्या भगवती में गोशालक के प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है, क्या वह अंश वीतराग भगवान् महावीर की वाणी हो सकती है ? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा और विपाक्दशा की विषयवस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लेखित है? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं। आज ऐसे अनेक तथ्य हैं, जो वर्त्तमान आगमसाहित्य को अक्षरशः सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वज्ञ तो अर्थ (विषयवस्तु) के प्रवक्ता हैंशब्दरूप तो उनको गणधरों या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया गया है। क्या आज हमारे पास जो आगम हैं, वे ठीक वैसे ही हैं, जैसे शब्दरूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा था ? आगम ग्रन्थों में परवर्तीकाल में जो विलोपन, परिवर्तन, परिवर्द्धन आदि हुआ और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे हैं, उससे क्या हम इन्कार कर सकते हैं ? स्वयं देवर्धि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है, तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं। आदरणीय पारखजी
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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