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'लोग' एवं 'लोय' - दोनों रूप मिलते हों, तो वहाँ अर्वाचीन रूप 'लोय' को प्राचीन रूप 'लोग' में रूपान्तरित किया जा सकता है, किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों के वैकल्पिक अर्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श के प्रति में नहीं मिलते हैं, तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि संभावना यह हो सकती है कि वह अंश परवर्ती काल में प्रक्षिप्त हुआ हो, अतः उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार, जो उसका भाषिक स्वरूप है, उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के रूप में, आचारांग के प्रारंभ में 'सुयं मे अउसंतेण भगवया एयं अक्खाय' के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी रूप में मिलता है, यदि हम इसे अर्धमागधी में रूपान्तरित करके 'सुतं मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता' कर देंगे, तो इसके प्रक्षिप्त होने की जो सम्भावना है, वह समाप्त हो जावेगी । अतः, प्राचीन स्तर के आगमों में किस अंश भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता है और किसको नहीं, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।
इसी सन्दर्भ में ऋषिभाषित के एक अन्य उदाहरण पर भी विचार कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है'अरहता इसिणा बुइन्तं..', किन्तु हम देखते हैं कि इसके 45 अध्यायों में से 37 में ‘बुइन्तं’ पाठ है, जबकि 7 में 'बुइयं' पाठ है। ऐसी स्थिति में यदि इस 'बुइयं' को 'बुइन्तं’ में बदला जा सकता है, किन्तु यदि किसी शब्दरूप के आगे-पीछे के शब्दरूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा।
कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रन्थ की एक ही आदर्श प्रति उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियाँ उपलब्ध न हों, तब तक उनके साथ छेड़छाड़ करना उचित नहीं होगा। अतः, अर्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में अन्तिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक है, वह है कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया जाता है, तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय होगा कि पाठान्तरों के रूप में अन्य उपलब्ध शब्दरूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधाररूप में मान्य की गयी हो,
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