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कि प्राकृत में 'न्' का प्रयोग ही प्राचीन है और 'ण्' का प्रयोग परवर्ती है, तो उन्होंने पं. ओझा के नाम से अपने सम्पादकीय में बिना प्रामाणिक सन्दर्भ दिये यह लिखना प्रारम्भ कर दिया कि ईसा पूर्व के ब्राह्मी शिलालेखों में 'न्' वर्ण और 'ण्' वर्ण के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था। डॉ. सुदीपजी इस सम्बन्ध में प्राकृतविद्या, अप्रैल-जून 1997, पृ.7 पर एवं जनवरी-मार्च 1998, पृ. 7-8 पर क्रमशः लिखते हैं कि
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'इसी प्रकार प्राकृत के 'नो णः सर्वत्र' नियम का अपवाद इन शिलालेखों में प्रायः ‘न्’ पाठ की उपलब्धि बताया गया है। स्व. ओझाजी ने इसका समाधान देते हुए लिखा है कि प्राचीन भारतीय लिपियों, विशेषतः ब्राह्मी लिपि में 'न्' एवं 'ण्' वर्णों के लिए एक ही आकृति (लिपि अक्षर) प्रयुक्त होते थे। जैसे कि अंग्रेजी में (एन) का प्रयोग 'न्' एवं 'ण्’ दोनों के लिए होता है। तब उसे 'न्' पढ़ा ही क्यों जाये ? जब प्राकृत में 'ण्' कार के प्रयोग का ही विधान है और उसे उक्त नियमानुसार 'ण्' पढ़ा जा सकता है, तो एक कृत्रिम विवाद की क्या सदाशयता हो सकती है ? किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने 'न्' पाठ रख दिया और उसे देखकर हमने कह दिया कि शिलालेखों की प्राकृत में 'ण्' का प्रयोग नहीं है। कई साहसी विद्वान तो इसके बारे में यहाँ तक कह गये हैं कि प्राकृत में 'न्' का प्रयोग प्राचीन है और 'ण्' का प्रयोग परवर्ती है। यह वस्तुतः एक अविचारित, शीघ्रतावश किया गया वचन-प्रयोग मात्र है।
जो विद्वान् ईसा पूर्व के शिलालेखों में 'न्' कार के प्रयोग का प्रमाण देते हैं, वे वस्तुतः शिलालेखों एवं प्राकृत के इतिवृत्त से वस्तुतः परिचित ही नहीं हैं। वस्तुस्थिति यह है कि ईसा पूर्व के शिलालेखों में प्रयुक्त लिपि में 'न्' वर्ण एवं 'ण्' वर्ण के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था- यह तथ्य महान् लिपिविशेषज्ञ एवं पुरातत्त्ववेत्ता रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्दजी ओझा ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतीय लिपिमाला' में स्पष्टतः घोषित किया है :
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1. इस सन्दर्भ में प्रथम आपत्ति तो यही है कि यदि पं. गौरीशंकरजी ओझा ने ऐसा लिखा है, तो भाई सुदीपजी ससंदर्भ उसे उद्धृत् क्यों नहीं करते कि पं. ओझाजी ने अमुक ग्रन्थ के अमुक संस्करण में अमुक पृष्ठ पर यह लिखा है? या तो वे इसका स्पष्ट रूप से प्रमाण दें, अन्यथा विद्वानों के नाम से व्यर्थ भ्रम न फैलायें।
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