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________________ 'अत्ना'-यही रूप मिलते हैं। इसी प्रकार, 'हित' का शौरसेनी रूप 'हिद' न मिलकर सर्वत्र ही हित शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार, जहाँ शौरसेनी दन्त्य 'न्' के स्थान पर मूर्द्धन्य 'ण' का प्रयोग पाया जाता है, वहाँ अशोक के मध्यभारतीय समस्त अभिलेखों में मूर्द्धन्य 'ण' का पूर्णतः अभाव है और सर्वत्र दन्त्य 'न्' का प्रयोग हुआ है, पश्चिमी अभिलेखों में भी मूर्द्धन्य 'ण' का यदा-कदा ही प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वत्र नहीं। पुनः, यह मूर्द्धन्य 'ण' का प्रयोग तो महाराष्ट्री प्राकृत में भी पाया जाता है। अशोक के अभिलेखों की भाषा के भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जो भी अध्ययन हुए हैं, उनमें जहाँ तक मेरी जानकारी है, किसी एक भी विद्वान् ने उनकी भाषा को शौरसेनी प्राकृत नहीं कहा है। यदि उसमें एक दो शौरसेनी शब्दरूप जो अन्य प्राकृतों यथा अर्धमागधी या महाराष्ट्री में भी कामन हैं, मिल जाते हैं, तो उसकी भाषा को शौरसेनी तो कदापि नहीं कहा जा सकता है, इसीलिए शायद प्रो. भोलाशंकरजी व्यास को भी दबी जुबान से यह कहना पड़ा कि शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। सम्भवतः, इसमें इतना संशोधन अपेक्षित है कि शौरसेनी प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्दरूप गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं, किन्तु यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह शब्दरूप प्राचीन अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भी मिलते हैं, अतः मात्र दो-चार शब्दरूप मिल जाने से अशोक के अभिलेख शौरसेनी प्राकृत के नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि उनमें शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों वाले शब्दरूप नहीं मिलते हैं। उसके आगे समादरणीय भोलाशंकरजी व्यास को उद्धत् करते हुए डॉ. सुदीप जैन ने लिखा है कि इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा कषायपाहुड़सुत्त, षट्खण्डागमसुत्त, कुन्दकुन्द साहित्य एवं धवला, जयधवला आदि में प्रयुक्त मिलती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि अशोक के अभिलेखों की मागधी अर्थात् अर्धमागधी से ही दिगम्बर जैन साहित्य की परिशुद्ध शौरसेनी विकसित हुई है। मैं यहाँ स्पष्ट रूप से यह जानना चाहूँगा कि क्या अशोक के अभिलेखों की भाषा में दिगम्बर जैन साहित्य की तथाकथित परिशुद्ध शौरसेनी अथवा नाटकों की शौरसेनी अथवा व्याकरणसम्मत शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण उपलब्ध होता है? जहाँ तक मेरी जानकारी है, अशोक के अभिलेखों की भाषा अन्य प्रदेशों के शब्दरूपों से प्रभावित मागधी प्राकृत है। वह मागधी और अन्य प्रादेशिक बोलियों के शब्दरूपों से मिश्रित एक ऐसी भाषा है, जिसकी सर्वाधिक निकटताजैन आगमों की अर्धमागधी से है। उसे शौरसेनी कहकर जो भ्रान्ति फैलाईजा रही है, वह सुनियोजित षड्यंत्र है। वस्तुतः, दिगम्बर आगम तुल्य ग्रन्थों की जिस भाषा को परिशुद्ध
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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