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________________ 7 महावीर स्वामी का दर्शन, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में यदि हम निवर्त्तक जैन धारा की सामाजिक सार्थकता एवं प्रासंगिकता की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इसमें सामाजिक दृष्टि की उपेक्षा की गई है। सामान्यतया, यह माना जाता है कि निवृत्ति प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक और प्रवृत्ति प्रधान दर्शन समाज-परक होते हैं। प्रवर्त्तक धर्म समाज-गामी है, इसका मतलब यह है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर (उन) सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करे, जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, जबकि निवर्त्तक धर्म व्यक्तिगामी है, (वह) सामाजिक कर्त्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं कहता है। उसके अनुसार, व्यक्ति के लिए मुख्य कर्त्तव्य एक ही है, वह यह कि जिस तरह भी हो आत्म-साक्षात्कार करे और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि भारतीय चिन्तन की निवर्त्तक जैनधारा असामाजिक है या उसमें सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितान्त भ्रम होगा। उसमें भी सामाजिक भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती। वह इतना तो अवश्य मानती है कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो, किन्तु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् जीवनपर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य करते रहे। यद्यपि निवृत्तिप्रधान जैनधर्म में जो सामाजिक सन्दर्भ उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। उसमें मूलतः सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि से इनमें समाज - रचना एवं सामाजिक दायित्वों के पालन की अपेक्षा समाज- जीन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल 66
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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