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________________ सहयोग के आधार पर चलता है-(परस्परोपग्रहोजीवानाम्)। जीवन जीने में दूसरों का सहयोग लेना और सहयोग देना-यही एक प्राकृतिक व्यवस्था है। (The Law of life is the law of cooperation). सहयोग ही जीवन का नियम है। प्राकृतिक व्यवस्था की दृष्टि ही सर्वत्र कार्य करती हुई दिखाई देती है, जैसे-हमें जीवन जीने के लिए प्राणवायु (ऑक्सीजन) चाहिए, वह हमें वनस्पति जगत् से मिलती है। वनस्पति जगत् को किसी एक मात्रा में कार्बन डाय ऑक्साइड चाहिए, जिसका उत्सर्जन प्राणी जगत् करता है। प्राणी जगत् के अवशिष्ट मलमूत्र आदि वनस्पति जगत् का आहार बनते हैं, तो वनस्पति जगत के फल आदि उत्पादन प्राणी जगत् का पोषण करते हैं। इस प्रकार, प्रकृति का जीवनचक्र पारस्परिक सहयोग पर चलता है और इसी तरह सन्तुलित बना रहता है। दुर्भाग्य से पश्चिम के एक चिन्तक डार्विन ने इस सिद्धान्त को विकास के सिद्धान्त के नाम पर उलट दिया। उसने कहा - 'अस्तित्व के लिए संघर्ष और योग्यतम की विजय।' मनुष्य ने अपने को योग्यतम मानकर जीव, जातियों और प्राकृतिक साधनों का दोहन किया। जीवों की अन्य प्रजातियों की हिंसा और प्रकृति के जीवन के लिए अंगीभूत या परमावश्यक हवा और पानी को प्रदूषित करने का मार्ग अपनाया। पारस्परिक अविश्वास और भय के बीज बोकर आज मनुष्य ने अपनी ही चिता तैयार कर ली है। आज जीवन के सभी रूपों के प्रति सम्मान रूप अहिंसा और अभय के सिद्धान्त ही ऐसे हैं, जो मानव अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते हैं। आज संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत् मानकर जीवन के सभी रूपों को, चाहे वे सुविकसित हों या अविकसित, उन्हें सम्मान देने की आवश्यकता है, साथ ही इस दृढ़निष्ठा की आवश्यकता है कि प्राणीय जीवन के सहयोगी तत्त्वों यथा-भूमि, जल, वायु और वनस्पति सहित क्षुद्र जीवधारियों का विनाश करने, उन्हें प्रदूषित करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। यही अहिंसा की प्रासंगिकता है। संक्षेप में कहें, तो अहिंसा -एक दूसरे के सहयोगपूर्वक लोकमंगल करते हुए जीवन जीने की एक पद्धति है। अहिंसा केवल 'जीओ और जीने दो' के नारे तक ही सीमित नहीं है, वरन् अहिंसा का आदर्श है 'दूसरों के लिए जियो, अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर दूसरों का हित-साधन करते हुए जियो।' इस तरह अहिंसा संकीर्णता की भावना से ऊपर उठकर कर्त्तव्यबुद्धि से लोकहित करते हुए जीने का संदेश देती है।
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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