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सबसे प्रभावित नहीं होती, वह यह भी नहीं मानता कि आत्मा को नष्ट किया जा सकता है, अतः शुभाशुभ कार्यों का प्रभाव भी आत्मा पर नहीं पड़ता। इस प्रकार, पूर्णकश्यप का दर्शन कपिल के दर्शन का पूर्ववर्ती था। इसी प्रकार, गीता में भी पूर्णकश्यप के इस आत्मअक्रियवाद की प्रतिध्वनि यत्र-तत्र सुनाई देती है, जो सांख्यदर्शन के माध्यम से उस तक पहुंची थी। स्थानाभाव से हम यहां उन सब प्रमाणों को प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। पाठकगण उल्लेखित स्थानों पर उन्हें देख सकते हैं।
उपर्युक्त संदर्भो के आधार पर बौद्ध आगम में प्रस्तुत पूर्णकश्यप के दृष्टिकोण को एक सही दृष्टिकोण से समझा जा सकता है, फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त आत्म-अक्रियवाद की धारणा नैतिक सिद्धान्तों के स्थापन में तार्किक दृष्टि से उपयुक्त नहीं ठहरती है।
यदि आत्मा अक्रिय है, वह किसी क्रिया की कर्ता नहीं है, तो फिर शुभाशुभ कार्यों का उत्तरदायी भी उसे नहीं माना जा सकता है। स्वयं प्रकृति भी चेतना एवं शुभाशुभ के विवेक के अभाव में उत्तरदायी नहीं बनती। इस प्रकार, आत्म-अक्रियवाद के सिद्धान्त में उत्तरदायित्व के अभाव में नैतिकता, कर्त्तव्य, धर्म आदि का मूल्य शून्यवत हो जाता है।
इस प्रकार, आत्म-अक्रियतावाद सामान्य बुद्धि की दृष्टि से एवं नैतिक नियमों के स्थापन की दृष्टि से अनुपयोगी ठहरता है, फिर भी दार्शनिक दृष्टि से इसका कुछ मूल्य है, क्योंकि स्वभावतया आत्मा को अक्रिय माने बिना मोक्ष एवं निर्वाण की व्याख्या सम्भव नहीं थी। यही कारण था कि आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद का प्रभाव दार्शनिक विचारणा पर बना रहा।
निष्क्रिय आत्मविकासवाद एवं नियतिवाद आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-आत्मवाद की एक धारा नियतिवाद थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है, तो पुरुषार्थवाद के द्वारा आत्मविकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा सकता था।
मक्खलीपुत्र गोशालक, जो आजीवक सम्प्रदाय का प्रमुख था-पूर्णकश्यप की आत्म-अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक था, लेकिन अक्रिय-आत्मवाद के कारण एवं आत्मविकास की परम्परा को व्यक्त करने में असमर्थ था, अतः निम्न योनि से आत्मविकास की उच्चतम स्थिति निर्वाण को प्राप्त करने के लिए उसने निष्क्रिय आत्म