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________________ व्यवहार होता है, वैसा ही बन जाता है। आत्मविकास के आकांक्षी तो सभी व्यक्ति होते हैं, किन्तु उनके विकास की दिशा सम्यक् है या नहीं यह बात उनकी सम्यक् जीवनदृष्टि पर ही निर्भर है। अतः, महावीर के दर्शन में सम्यक् जीवनदृष्टि के विकास पर बल दिया गया है। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होगा, तब ही उसका आचार-व्यवहार भी सम्यक् हो सकेगा। जब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होगा तब तक व्यक्ति का ज्ञान और आचरण सम्यक् नहीं होगा। यही कारण है कि चाहे जैनों का त्रिविध साधना मार्ग हो या बौद्धों का अष्टांगिक मार्ग अथवा गीता का योग मार्ग हो, उसमें प्रथम स्थान सम्यक् दर्शन या सम्यक् दृष्टि को ही दिया गया है। सम्यक् जीवनदृष्टि ही व्यक्ति के आत्मविकास की सम्यक् दिशा निर्धारित करती है और उसी के आधार पर व्यक्ति सम्यक् दशा को प्राप्त करता है। किन्तु यह सम्यक् दशा अर्थात् मानव जीवन के लक्ष्य की पूर्णता तभी सम्भव होगी जब हमारे जीवन की दिशा अर्थात् जीवन जीने की पद्धति और जीवनदृष्टि परिवर्तित होगी । यही कारण था कि भारतीय दर्शन ने दर्शनविशुद्धि अर्थात् जीवन जीने के सम्यक् दृष्टिकोण पर सबसे अधिक बल दिया। अतः, यहाँ महावीर का जीवन दर्शन अर्थात् जीवन जीने की दृष्टि क्या है ? इसे समझना परमावश्यक है। जीवन का सम्यक् लक्ष्य समत्व का अर्जन और ममत्व का विसर्जन किसी भी धर्म के जीवन दर्शन के लिए सबसे पहली आवश्यकता जीवन के सम्यक् या आदर्श लक्ष्य के निर्धारण की होती है। भारतीय दर्शनों में जीवन का लक्ष्य समभाव या समत्व की उपलब्धि बताया गया है। दूसरे शब्दों में जीवन में, समत्व का अवतरण हो यही जीवन का सम्यक् लक्ष्य है, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा समत्व रूप है और इस समत्व अर्थात् तनावरहित शुद्ध चेतना को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का लक्ष्य है। इसी बात को आचारांगसूत्र में प्रकारान्तर से इस प्रकार कहा गया है कि 'आर्यजन समभाव को धर्म कहते हैं।' भारतीय धर्मों के अनुसार साधना का अर्थ और इति दोनों ही समत्व या समता हैं। समत्व से तात्पर्य है- अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्ति में तनाव, विचलन या विक्षोभ नहीं होना। गीता की भाषा में कहें, तो दुःख में अनुद्विग्नता और सुख में विगत - स्पृहा होना ही समता है। - सामान्यतया, विभिन्न धर्मों और दर्शनों में जीवन का लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति माना गया है, किन्तु यहां मोक्ष या निर्वाण का क्या अर्थ है, यह समझ लेना आवश्यक है। |||
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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