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________________ मैं विवाद के फल बताता हूँ। एक, यह अपूर्ण या एकांगी होता है, दूसरे, वह विग्रह या अशांति का कारण होता है। निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाले यह भी देखकर विवाद न करें। साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियां हैं, पण्डित इन सबमें नहीं पड़ता। दृष्टि और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्तिरहित वह क्या ग्रहण करे? (लोग) अपने धर्म को परिपूर्ण बताते हैं और दूसरे के धर्म को हीन बताते हैं। इस प्रकार, भिन्न मत वाले ही विवाद करते हैं और अपनी धारणा को सत्य बताते हैं। यदि कोई दूसरे की अवज्ञा (निंदा) करके हीन हो जाए, तो धर्मों में श्रेष्ठ नहीं होता। जो किसी वाद में आसक्त है, वह शुद्धि को प्राप्त नहीं होता, क्योकि वह किसी दृष्टि को मानता है। विवेकी ब्राह्मण तृष्णा-दृष्टि में नहीं पड़ता। वह तृष्णा-दृष्टि का अनुसरण नहीं करता। मुनि इस संसार में ग्रंथियों को छोड़कर वादियों में पक्षपाती नहीं होता। अशांतों में शांत वह जिसे अन्य लोग ग्रहण करते हैं, उसकी अपेक्षा करता है, बाद में अनासक्त दृष्टियों से पूर्ण रूप से मुक्त वह धीर संसार में लिप्त नहीं होता। जो कुछ दृष्टि, श्रुति या विचार है, उन सब पर वह विजयी है। पूर्ण रूप से मुक्त, मार-त्यक्त वह संस्कार, उपरति तथा तृष्णारहित है। इतना ही नहीं, बुद्ध सदाचरण और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह वृत्ति को अनुपयुक्त समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्वाण-मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है। यह तो मल्लविद्या हैराजभोग से पुष्ट पहलवान के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रहा। जो किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते हैं और अपने मत को सत्य बताते हैं, उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ बहस करने को यहां कोई नहीं है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि बुद्ध ने भी महावीर के समान ही दृष्टि राग को अनुपयुक्त माना है और बताया कि सत्य का सम्पूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहां सारी दृष्टियां शून्य हो जाती हैं। यह भी एक विचित्र संयोग है कि महावीर के अन्तेवासी इंद्रभूति के समान ही बुद्ध के अन्तेवासी आनंद को भी बुद्ध के जीवनकाल में अहंत पद प्राप्त नहीं हो सका। सम्भवतः, यहां भी यही मानना होगा कि शास्ता के प्रति आनंद का जो दृष्टिराग था, वही उसके अहंत होने में बाधा था। इस संबंध में दोनों धर्मों के निष्कर्ष समान प्रतीत होते हैं।
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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