________________
विश्व इतिहास का अध्येता इसे भलीभांति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराए हैं। आश्चर्य तो यह है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन को धर्म का बाना पहनाया गया। शांतिप्रदाता धर्म ही अशांति का कारण बना। आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण यह भी है । यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित होती है, किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक अनाग्रही हो, तो उसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं।
अनेकान्त विचार-दृष्टि विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों की समाप्ति द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है, क्योंकि वैयक्तिक रुचि भेद एवं क्षमता भेद तथा देशकालगत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं विचार सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक सम्प्रदाय का नारा असंगत और अव्यावहारिक ही नहीं, अपितु अशांति और संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है, लेकिन इनके लिए प्राथमिक आवश्यकता है - धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की।
अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक सहिष्णुता तो सर्वविदित ही है। अपने ग्रंथ शास्त्रवार्त्तासमुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, न्यायदर्शन के ईश्वर कर्तृत्ववाद और वेदांत के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रंथ लोकतत्त्वसंग्रह में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं -
पक्षपातो न मे वीरें न द्वोषः युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्य
कपिलादिषु । परिग्रहः । ।
मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हों उसे ग्रहण करना चाहिए।
इसी प्रकार, आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्व देव समभाव का परिचय देते हुए कहा था
भववीजांकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ।।
संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं, उसे मैं प्रणाम करता हूँ,