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साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद जैसी अनेक राजनीतिक विचारधाराएं तथा राजतंत्र, कुलतंत्र, अधिनायक तंत्र आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्त्तमान में प्रचलित हैं। मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। मुख्य बात यह है कि आज का राजनीतिक संघर्ष आर्थिक हितों का संघर्ष न होकर वैचारिक संघर्ष है। आज अमेरिका और रूस अपनी वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक दूसरे को नाम - शेष करने की उनकी यह महत्वाकांक्षा कहीं मानव जाति को ही नाम शेष न कर दे।
आज के राजनीतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय का अत्यन्त उपादेय है। मानव जाति ने राजनीतिक जगत् में, राजतंत्र से प्रजातंत्र तक की जो लंबी यात्रा तय की है, उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचारदृष्टि और सहिष्णु भावना में ही प्रजातंत्र का भविष्य उज्जवल रह सकता है। राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातंत्र ( पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी) वस्तुतः राजनीतिक स्याद्वाद है। इस परम्परा में बहुमत दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार मान्य करती है और यथासम्भव उससे लाभ भी उठाती है । दार्शनिक क्षेत्र में जहां भारत स्याद्वाद का सृजक है, वहीं राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातंत्र का समर्थक भी है, अतः आज स्याद्वाद सिद्धान्त को व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। इसी प्रकार, हमें यह भी समझना है कि राज्य-व्यवस्था का मूल लक्ष्य जनकल्याण है, अतः जनकल्याण को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के मध्य एक सांग संतुलन स्थापित करना है। आवश्यकता सैद्धांतिक विवादों की नहीं, अपितु जनहित से संरक्षण एवं मानव की पाशविक वृत्तियों के नियंत्रण की है।