SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रयास का सम्यक् मूल्यांकन करेंगे। आज मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरे ही शिष्य ने चिंतन के क्षेत्र में मुझसे एक कदम आगे रखा है। हम गुरु-शिष्य में कौन सत्य है या असत्य है, यह विवाद हो सकता है, यह निर्णय तो पाठकों को करना है, किन्तु अनेकांत शैली में अपेक्षाभेद से दोनों भी सत्य हो सकते हैं। वैसे, शास्त्रकारों ने कहा है कि शिष्य से पराजय के लिए परम आनंद का विषय होता है, क्योंकि वह उसके जीवन की सार्थकता का अवसर है। गुरु स्याद्वाद का लक्ष्य-एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास (अ) दार्शनिक विचारों के समन्वय का आधार स्याद्वाद - 23 भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपनी चरम सीमा पर थे। जैन आगमों के अनुसार उस समय 363 और बौद्ध आगमों के अनुसार 62 दार्शनिक मत प्रचलित थे । वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो विवादों से ऊपर उठने के लिए दिशा निर्देश दे सके। भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्गमुखता को अपनाया। सुत्तनिपात में वे कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशांति का कारण होता है, अतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े।" बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित परविरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बांधा। वे कहते हैं कि पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता। 24 बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वादविवाद निर्वाण मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं। अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। इसी प्रकार, भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है। जो लोग अपने की प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार-चक्र में घूमते रहते हैं।" इस प्रकार, भगवान् महावीर व बुद्ध-दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जनमानस को मुक्त करना चाहते थे, फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अंतर था। जहां बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की 25
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy