________________
का केवल एक ही अर्थ मान्य है।
इस प्रकार, जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पांचवें और छठवें अर्थ मान्य रहे हैं, फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अवक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में
जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्य को स्वीकार करती है, निरपेक्ष की नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है, किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है। यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान लेंगे, तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। अतः, जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह अनिर्वचनीय भी है। सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय, क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है। इस प्रकार, पूर्व निर्दिष्ट पांच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर अंतिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है। मेरी दृष्टि में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है। प्रथम तो, 'है' और 'नहीं है' - ऐसे विधि प्रतिषेध का युगपद् (एक साथ) प्रतिपादन सम्भव नहीं है, अतः अवक्तव्य भंग की योजना है। दूसरे, निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे, अपेक्षाएं अनन्त हो सकती हैं, किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन सम्भव नहीं है, इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं
1. (अ.)z उ अवक्तव्य है 2. - अZ उ अवक्तव्य है,
3. (अ) Z उ अवक्तव्य है। सप्तभंगी के शेष चारों भंग सांयोगिक हैं। विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्व तो अवश्य है, किन्तु इनका अपना कोई स्वतंत्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। अतः, इन पर यहां विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है।
सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र
वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्युसाइविकन ने एक नई दृष्टि दी