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भावात्मक गुणों पर ही विचार करें, तो उनकी संख्या भी अनेक होगी, उदाहरणार्थ-गुलाब का फूल गंध की दृष्टि से सुगंधित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसकी पंखुड़ियां कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि। यह तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे-गुलाब का फूल, चमेली, मोगरे या पलाश के फूल सा नहीं है। वह अपने से इतर सभी फूलों से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है। पुनः, यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों (संभावनाओं) पर विचार करें, तो उसके गुण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुंच जावेगी, अतः यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुण मान लेती हैं वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षाभेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते हैं।
अस्तित्व नास्तित्व पूरक हैं और नास्तित्व अस्तित्व पूरक हैं। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टा से नित्य है, वही पर्यायदृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है। पुनः, उत्पत्ति
और विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व को उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया। जिनोपदष्टि यह त्रिपदी ही अनेकान्तवादी विचार पद्धति का आधार है।' स्याद्वाद और नयवाद संबंधी विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है। त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित वह 'बीज' है, जिससे स्याद्वादरूपी वटवृक्ष विकसित हुआ है। यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप की सूचक है, जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध प्रसंगों में किया है। उदाहरणार्थ, जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन्! जीव नित्य या अनित्य है? तब उन्होंने बताया- हे गौतम! जीव